"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 183वां श्लोक"
"मनोमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
तन्मनःशोधनं कार्यं प्रयत्नेन मुमुक्षुणा ।
विशुद्धे सति चैतस्मिन्मुक्तिः करफलायते ॥ १८३ ॥
अर्थ:-उस मन का मुमुक्षु को प्रयत्न पूर्वक शोधन करना चाहिये, उसके शुद्ध हो जाने पर मुक्ति करामलकवत् हो जाती है।
इस श्लोक में श्री आदिशंकराचार्य जी ने स्पष्ट किया है कि मुक्ति का रहस्य मन की शुद्धि में निहित है। जब तक मन अशुद्ध है, तब तक आत्मा का साक्षात्कार संभव नहीं। मन ही वह माध्यम है जिसके द्वारा जीव संसार के बन्धनों में फँसता है और वही मन जब निर्मल हो जाता है, तो वही मुक्ति का साधन बनता है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि मुमुक्षु—अर्थात जो व्यक्ति मुक्ति की आकांक्षा रखता है—उसे अपने मन का शोधन अत्यंत प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। यह कोई साधारण कार्य नहीं है, बल्कि यह निरंतर साधना, संयम और विवेक की माँग करता है। मन को शुद्ध करने का अर्थ है उसकी वासनाओं, राग-द्वेष, अहंकार और मोह को धीरे-धीरे क्षीण करना, ताकि वह अपनी वास्तविक प्रकृति—शुद्ध चैतन्य के निकट पहुँच सके।
मन की शुद्धि का अर्थ यह नहीं कि मन का नाश कर दिया जाए, बल्कि उसका रूपांतरण किया जाए। जैसे किसी गंदे जलाशय का पानी छानने पर निर्मल हो जाता है, वैसे ही साधना द्वारा मन की अशुद्धियाँ दूर की जा सकती हैं। शंकराचार्य जी पूर्ववर्ती श्लोकों में बता चुके हैं कि मन ही अविद्या है और यही संसार का कारण है। जब मन रजोगुण और तमोगुण से मलिन होता है, तब यह आसक्ति, क्रोध, ईर्ष्या और मोह उत्पन्न करता है, जिससे जीव बन्धन में फँसता है। परन्तु जब वही मन सत्त्वगुण से युक्त होकर शांत, स्थिर और शुद्ध बन जाता है, तब वह आत्मा के स्वरूप को प्रतिबिंबित करने में समर्थ होता है। अतः मन का शोधन ही मुक्ति का द्वार है।
यह शोधन कैसे किया जाए? इसके लिए शास्त्रों में अनेक उपाय बताए गए हैं—श्रवण, मनन और निदिध्यासन; भक्ति, ध्यान, जप, और निष्काम कर्म। विशेषतः भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं—“योगिनः कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये।” अर्थात् योगीजन आसक्ति रहित होकर कर्म करते हैं, केवल मन की शुद्धि के लिए। यही दृष्टिकोण यहाँ भी अपनाना आवश्यक है। जब साधक हर क्रिया को ईश्वरार्पण बुद्धि से करता है, तो उसका मन धीरे-धीरे विक्षेपों से मुक्त होने लगता है और एकाग्रता की दिशा में अग्रसर होता है।
शंकराचार्य जी आगे कहते हैं कि जब यह मन शुद्ध हो जाता है, तब मुक्ति “करफलवत्” प्राप्त होती है—अर्थात् जैसे हाथ की हथेली पर रखा हुआ फल साक्षात् प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार मुक्ति तत्काल और स्पष्ट रूप से अनुभव में आ जाती है। इसका आशय यह है कि आत्मज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता; वह तो सदैव विद्यमान है। मन की अशुद्धियाँ उस ज्ञान के ऊपर पर्दे की भाँति हैं। जब वह पर्दा हट जाता है, तो आत्मा का प्रकाश स्वयं ही प्रकट हो जाता है। अतः मुक्ति कोई भावी घटना नहीं, बल्कि अपनी वास्तविक अवस्था की पहचान है, जो मन की शुद्धि के पश्चात सहज ही उपलब्ध होती है।
अतः इस श्लोक का सार यही है कि मन का शोधन ही साधक का परम कर्तव्य है। बिना शुद्ध मन के वेदांत का ज्ञान केवल बौद्धिक स्तर पर रह जाता है; पर जब मन निर्मल होता है, तब वही ज्ञान आत्मानुभूति में परिणत हो जाता है। जैसे स्वच्छ दर्पण में मुख का प्रतिबिंब स्पष्ट दिखाई देता है, वैसे ही शुद्ध मन में आत्मा का साक्षात्कार होता है। यही शंकराचार्य का सन्देश है—“मनः शुद्धेः मुक्ति साक्षात्।” इसलिए प्रत्येक मुमुक्षु को अपने मन की वासनाओं और विकारों का परित्याग कर, सतत साधना द्वारा उसे निर्मल बनाना चाहिए, क्योंकि शुद्ध मन ही ब्रह्म के प्रकाश को प्रकट करता है और वही मुक्ति का द्वार है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!