"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 184वां श्लोक"
"मनोमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मोक्षैकसक्त्या विषयेषु रागं निर्मूल्य संन्यस्य च सर्वकर्म। सच्छूद्ध्या यः श्रवणादिनिष्ठो रजःस्वभावं स धुनोति बुद्धेः ॥ १८४॥
अर्थ:-मोक्ष की आसक्ति से जो विषयों में राग का निर्मूलन करके तथा सर्वकर्मों को त्याग कर, शुद्ध श्रद्धा से युक्त हुआ श्रवणादि में तत्पर रहता है, वह बुद्धि के रजोमय (चंचल) स्वभाव को नष्ट कर देता है।
इस श्लोक में श्री शंकराचार्य ने मुमुक्षु साधक के लिए आत्म-साक्षात्कार की अत्यंत आवश्यक साधना का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि जो साधक मोक्ष में ही एकनिष्ठ आसक्ति रखता है, जिसने विषयों में राग को पूर्णतया निर्मूल कर दिया है और जिसने समस्त कर्मों का संन्यास कर दिया है, वही वास्तव में आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के योग्य बनता है। यहाँ ‘मोक्षैकसक्त्या’ शब्द विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। सामान्य मनुष्य की आसक्ति संसार के प्रति होती है—विषयों, धन, प्रतिष्ठा, देह-सुख, परिवार आदि में। किंतु जब यह आसक्ति धीरे-धीरे समाप्त होकर केवल मोक्ष—अर्थात् आत्म-साक्षात्कार—में परिवर्तित होती है, तब ही साधक का मार्ग वास्तविक रूप से आध्यात्मिक बनता है। इस एकनिष्ठ आकांक्षा को ही ‘मुमुक्षुत्व’ कहा गया है, जो कि विवेक, वैराग्य और शमादि षट्संपत्ति के साथ मिलकर साधनचतुष्टय का अंग है।
शंकराचार्य कहते हैं कि ऐसा साधक सबसे पहले विषयों में राग का निर्मूलन करता है—“विषयेषु रागं निर्मूल्य।” विषयों के प्रति राग ही बंधन का मूल कारण है। जब तक मन विषयों की ओर आकर्षित रहेगा, तब तक वह आत्मा की ओर स्थिर नहीं हो सकता। विषय-सुख क्षणिक और अपूर्ण होते हैं, किंतु आत्मानंद शाश्वत और पूर्ण है। इसलिए विवेकी साधक यह भली भाँति समझ लेता है कि विषय-सुख का परिणाम केवल दुख और मोह है। जैसे बीज को जड़ से उखाड़ दिया जाए तो वृक्ष पुनः नहीं उगता, वैसे ही विषयों में राग का निर्मूलन करने पर संसार का आकर्षण सदा के लिए समाप्त हो जाता है।
इसके बाद शंकराचार्य कहते हैं—“संन्यस्य च सर्वकर्म।” यहाँ कर्म त्याग का अर्थ बाह्य कार्यों का नहीं, बल्कि कर्तृत्व और भोक्तृत्व भाव का त्याग है। जब साधक यह जान लेता है कि आत्मा न कर्ता है, न भोक्ता, बल्कि साक्षी मात्र है, तब वह कर्मों में लिप्त होते हुए भी वास्तव में संन्यासी बन जाता है। यह ज्ञानयोग का मूल तत्त्व है—कर्म में अनासक्ति और आत्मा में निष्ठा। कर्मों का त्याग बाह्य नहीं, आंतरिक है; यह मन की अवस्था है जिसमें अहंकार और फलासक्ति का लोप हो जाता है।
ऐसा साधक फिर “सच्छ्रद्धया श्रवणादिनिष्ठः” हो जाता है—अर्थात् गुरु और शास्त्र के वचनों में दृढ़ श्रद्धा रखकर श्रवण, मनन और निदिध्यासन में प्रवृत्त होता है। श्रद्धा ही वह पुल है जो बुद्धि को शुद्ध बनाकर सत्य की ओर ले जाती है। बिना श्रद्धा के श्रवण केवल शब्द-स्मरण रह जाता है, किंतु श्रद्धा से युक्त श्रवण अंतःकरण को परिवर्तित कर देता है। शंकराचार्य ने स्पष्ट कहा है कि श्रद्धा, भक्ति और ध्यान ही ज्ञान की भूमि को सींचने वाले जल के समान हैं।
अंत में कहा गया है—“रजःस्वभावं स धुनोति बुद्धेः।” रजोगुण का स्वभाव है चंचलता, प्रवृत्ति, अस्थिरता और विषयासक्ति। जब साधक मोक्ष में निष्ठ हो जाता है, विषयों से राग रहित बन जाता है, कर्मों में अहंभाव का त्याग कर देता है और श्रवण-मनन-निदिध्यासन में मन को स्थिर करता है, तब उसकी बुद्धि से यह रजोगुण पूर्णतः नष्ट हो जाता है। बुद्धि निर्मल, शांत और सत्वगुणप्रधान बन जाती है। ऐसी निर्मल बुद्धि ही आत्मा के स्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन कर पाती है।
इस प्रकार यह श्लोक साधना के क्रम को अत्यंत संक्षेप में प्रस्तुत करता है—वैराग्य, संन्यास, श्रद्धा और श्रवण-मनन-निदिध्यासन के माध्यम से रजोगुण का नाश, और अंततः आत्म-साक्षात्कार। जब बुद्धि पूर्ण रूप से शांत हो जाती है, तभी उसमें आत्मा का प्रकाश प्रतिबिंबित होता है, जैसे निर्मल जल में चंद्रमा की छवि। यही मोक्ष है—आत्मा में स्थित होकर सब भेदों से परे शुद्ध चैतन्य का अनुभव।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!