"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 185वां श्लोक"
"मनोमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मनोमयो नापि भवेत्परात्मा ह्याद्यन्तवत्त्वात्परिणामिभावात् ।
दुःखात्मकत्वाद्विषयत्वहेतो-र्द्रष्टा हि दृश्यात्मतया न दृष्टः ॥ १८५ ॥
अर्थ:-मनोमय कोश भी आद्यन्तवान्, परिणामी, दुःखात्मक और विषयरूप होने के कारण परात्मा नहीं हो सकता, क्योंकि द्रष्टा कभी दृश्यरूप नहीं देखा गया।
शंकराचार्य जी इस श्लोक में यह स्पष्ट कर रहे हैं कि मनोमय कोश — अर्थात् मन से निर्मित वह आवरण जिसमें विचार, संकल्प, विकल्प, सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि भावनाएँ उत्पन्न होती हैं — वह भी आत्मा नहीं है। इसका कारण यह है कि मनोमय कोश की कुछ सीमाएँ और विशेषताएँ हैं जो उसे परमात्मा से भिन्न सिद्ध करती हैं। मनोमय कोश आरम्भ और अन्त वाला है, यह जन्म से प्रकट होता है और मृत्यु के साथ लय को प्राप्त हो जाता है। जो वस्तु आद्यन्तवान् है, वह नित्य नहीं हो सकती; और आत्मा तो सदा विद्यमान, अजन्मा और अविनाशी है। अतः मनोमय कोश आत्मा नहीं हो सकता।
इसके अतिरिक्त मनोमय कोश परिणामी है, अर्थात् उसमें परिवर्तन होता रहता है। जब कोई शुभ समाचार मिलता है तो मन प्रसन्न हो जाता है, और दुखद समाचार मिलने पर वही मन शोकग्रस्त हो जाता है। यह परिवर्तनशीलता दर्शाती है कि मन अस्थिर और अनित्य है। परन्तु आत्मा अपरिवर्तनीय है — वह साक्षीभाव से सब अवस्थाओं को देखता है पर स्वयं कभी बदलता नहीं। इसलिए जो वस्तु परिवर्तनशील है, वह साक्षी या परात्मा नहीं हो सकती।
शंकराचार्य यह भी कहते हैं कि मनोमय कोश दुःखात्मक है, अर्थात् उसमें दुःख का स्वभाव निहित है। चाहे मन को अस्थायी सुख की अनुभूति हो, पर वह सुख भी क्षणिक होता है और अन्ततः दुःख का ही कारण बनता है। मन का स्वभाव द्वन्द्वात्मक है — सुख-दुःख, राग-द्वेष, आशा-निराशा, विजय-पराजय — इन विरोधी भावों में ही वह उलझा रहता है। ऐसा मन कभी स्थायी आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता। जब तक मन में चंचलता है, तब तक आत्मिक शान्ति का अनुभव असम्भव है।
इसके अतिरिक्त मन विषयरूप है — यह सदा विषयों की ओर प्रवृत्त होता है। मन की प्रवृत्ति बाहर की ओर है; वह इन्द्रियों के माध्यम से विषयों का अनुभव करता है और उन्हें अपना मान लेता है। जो विषयों पर आश्रित है, वह आत्मा नहीं हो सकता, क्योंकि आत्मा स्वयं प्रकाश स्वरूप है — उसे किसी बाह्य वस्तु के ज्ञान के लिए विषय या इन्द्रिय की आवश्यकता नहीं। मन केवल एक उपकरण है जो आत्मा के साक्षी भाव में प्रकाश पाता है।
अन्त में आचार्य कहते हैं — “द्रष्टा हि दृश्यात्मतया न दृष्टः।” अर्थात् देखने वाला (द्रष्टा) कभी देखा नहीं जा सकता। मन दृश्य है, क्योंकि हम उसे देख सकते हैं — हम कह सकते हैं “मेरा मन अशान्त है” या “मेरा मन प्रसन्न है।” इसका अर्थ यह हुआ कि मन देखा जा रहा है, और जो देखा जाता है, वह द्रष्टा नहीं हो सकता। द्रष्टा सदैव साक्षी रूप में रहता है — वह कभी भी दृश्य नहीं बनता। आत्मा वही द्रष्टा है जो मन के परिवर्तन, उसकी वृत्तियों और विचारों का साक्षी है, किन्तु स्वयं कभी बदलता नहीं।
अतः निष्कर्षतः यह स्पष्ट है कि मनोमय कोश आत्मा नहीं है। वह केवल आत्मा का एक आवरण है जो उसके प्रकाश में कार्य करता है। आत्मा से मन को शक्ति मिलती है, किन्तु मन उस आत्मा का प्रकाशक नहीं हो सकता। जब साधक यह विवेकपूर्वक समझ लेता है कि मन केवल उपकरण है और आत्मा उससे सर्वथा भिन्न, शुद्ध, नित्य, साक्षीस्वरूप है — तब वह आत्मस्वरूप की ओर अग्रसर होता है। यही विवेक और भेदबुद्धि मुक्ति की दिशा में वास्तविक कदम है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!