Total Blog Views

Translate

शनिवार, 29 नवंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 186वां श्लोक"

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 186वां श्लोक"

"विज्ञानमय कोश"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

बुद्धिर्बुद्धीन्द्रियैः सार्धं सवृत्तिः कर्तृलक्षणः । विज्ञानमयकोशः स्यात्पुंसः संसारकारणम् ॥ १८६ ॥

अर्थ:-ज्ञानेन्द्रियों के साथ वृत्ति युक्त बुद्धि ही कर्तापन के स्वभाववाला विज्ञानमय कोश है, जो पुरुष के [ जन्म-मरण रूप] संसार का कारण है।

विवेकचूडामणि का यह श्लोक स्पष्ट करता है कि मानव के भीतर जो कर्तृत्व अर्थात् ‘मैं करता हूँ’ का भाव उत्पन्न होता है, उसका आधार बुद्धि और उसकी वृत्तियाँ हैं। जब बुद्धि ज्ञानेन्द्रियों के साथ मिलकर किसी विषय को ग्रहण करती है, उसका विश्लेषण करती है, निर्णय लेती है और उसे अपना स्वयं का कार्य मानकर अनुभव करती है, तब विज्ञानमय कोश का निर्माण होता है। यही विज्ञानमय कोश वह आंतरिक आवरण है जो मनुष्य को कर्ता, भोक्ता और अनुभवकर्ता के रूप में स्थापित करता है। इस कर्तापन का भाव ही संसार में पुनर्जन्म, कर्म और अनुभवों की श्रृंखला को चलाता रहता है। वास्तव में आत्मा न कर्ता है, न भोक्ता; वह साक्षी मात्र है। परंतु बुद्धि जब स्वयं को आत्मा मानकर ‘मैं कर रहा हूँ’ का अभिमान धारण कर लेती है, तभी यह कर्तृत्व का मिथ्या भाव प्रारंभ होता है।

विज्ञानमय कोश की वृत्तियाँ अत्यंत सूक्ष्म होती हैं, क्योंकि यह बुद्धि का स्तर है, जिसका कार्य विवेक, निर्णय और अनुभवों का समाहार करना है। जब बुद्धि आत्मा से अपने को भिन्न जानने में असमर्थ रह जाती है, तब वह अपने निर्णयों, कर्मों और अनुभूतियों का अहंकारपूर्वक स्वामित्व लेती है। इसी अहंता—जो कर्तृत्व की मूल जड़ है—के कारण जीव बार-बार संसार के चक्र में बंधा रहता है। विज्ञानमय कोश की यह विशेषता है कि यह बुद्धि के द्वारा निर्मित होने के कारण अत्यंत प्रभावशाली है। मन की चंचलता से ऊपर और आनंदमय कोश की नित्यता से नीचे स्थित, यह वह स्तर है जहाँ जीव की गलत पहचान पक्की हो जाती है। यही गलत पहचान जीव को आत्मस्वरूप से दूर कर कर्मबंधन में फंसा देती है।

ज्ञानेन्द्रियाँ इस कर्तृत्व भाव को और पुष्ट करती हैं। वे बाह्य संसार से संपर्क स्थापित करती हैं और बुद्धि को विषयों का ज्ञान प्रदान करती हैं। बुद्धि उन विषयों पर विचार करती है, निर्णय लेती है और उन निर्णयों को अपनी पहचान का हिस्सा मान लेती है। इसी प्रक्रिया में जीव अपने को शरीर-मन-बुद्धि का संयोग मानकर यह समझ बैठता है कि “मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं जानता हूँ, मैं करता हूँ।” यही 'मैं' के साथ कर्म का जुड़ना जन्म-मरण के चक्र का मूल बन जाता है। इस प्रकार विज्ञानमय कोश जीव की संसारिक यात्रा में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है––यह न केवल अनुभवों को ग्रहण करता है, बल्कि आत्मा के स्थान पर स्वयं को कर्ता घोषित कर देता है।

परंतु वेदांत का संदेश यह है कि बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियाँ, वृत्तियाँ—ये सब प्रकृति के अंतर्गत हैं, परिवर्तनशील हैं, और परम सत्य नहीं हैं। आत्मा तो इन सबका साक्षी मात्र है। जब साधक यह समझ लेता है कि कर्तृत्व बुद्धि का है, मेरा नहीं; अनुभव वृत्ति का है, आत्मा का नहीं; और ज्ञानेन्द्रियाँ केवल साधन हैं, स्वयंसिद्ध सत्य नहीं—तब कर्तापन का भाव धीरे-धीरे क्षीण होने लगता है। कर्तृत्व का यह अभिमान मिटते ही विज्ञानमय कोश की पकड़ ढीली पड़ती है और आत्मस्वरूप की झलक मिलनी आरंभ होती है। यही विवेक का उदय है और यही संसारबन्धन से मुक्ति का मार्ग है। इस प्रकार यह श्लोक दर्शाता है कि कर्तृत्व का भाव, जो विज्ञानमय कोश की देन है, ही संसार का मूल कारण है, और विवेक तथा आत्मचिन्तन के द्वारा इस कर्तापन से पार होकर जीव अपने शुद्ध, मुक्त, साक्षी स्वरूप को पहचान सकता है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.

"For more information, please click the link below."
www.sadhanapath.in