Total Blog Views

Translate

रविवार, 30 नवंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 187वां श्लोक"

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 187वां श्लोक"

"विज्ञानमय कोश"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

अनुव्रजच्चित्प्रतिविम्बशक्ति-र्विज्ञानसंज्ञः प्रकृतिर्विकारः ।

ज्ञानक्रियावानहमित्यजस्त्रं देहेन्द्रियादिष्वभिमन्यते भृशम् ॥ १८७॥

अर्थ:-चित्त और इन्द्रियादि का अनुगमन करने वाली चेतन की प्रतिविम्ब शक्ति ही 'विज्ञान' नामक प्रकृति का विकार है। वह 'मैं ज्ञान और क्रियावान् हूँ' ऐसा देह-इन्द्रिय आदि में निरन्तर अभिमान किया करता है।

विवेकचूडामणि का यह श्लोक जीव की अध्यास-स्थिति को अत्यन्त सूक्ष्म रूप से प्रकट करता है। यहाँ शंकराचार्य बताते हैं कि चित्त, मन और इन्द्रियों के साथ जुड़कर कार्य करने वाली जो चेतन की प्रतिबिम्बित शक्ति है, वही ‘विज्ञान’ कहलाती है और प्रकृति का एक सूक्ष्म विकार है। यह विज्ञानमय कोश—जो बुद्धि, अहंकार और वृत्ति-ज्ञान से मिलकर बना है—अपने को वास्तविक आत्मा समझ बैठता है। आत्मा की चेतना इसके भीतर प्रतिबिम्बित होती है, पर यह प्रतिबिम्ब अपने को मूल समझ लेता है। इसी भ्रम से ‘मैं जानने वाला हूँ, मैं करने वाला हूँ, मैं सोचने वाला हूँ’ जैसे भाव जन्म लेते हैं। यह कर्तृत्व और भोक्तृत्व का भाव ही जीव को संसार-बद्ध बना देता है।

यह विज्ञानशक्ति चित्त और इन्द्रियों का अनुसरण करती है—अर्थात् मन जहाँ जाता है, बुद्धि-वृत्ति भी वहीं प्रवाहित हो जाती है। मन किसी विषय की ओर दौड़ता है, इन्द्रियाँ विषयों में रमता चाहती हैं, और बुद्धि इस पूरे प्रवाह को कर्तापन का स्वरूप देकर यह मान लेती है कि ‘यह सब मैं कर रहा हूँ’। जबकि वास्तव में यह सब प्रकृति के गुणों का खेल है। आत्मा तो केवल साक्षी है—अकर्मा, निर्विकार, नित्यमुक्त। पर विज्ञानमय कोश में प्रतिबिम्बित चेतना के कारण जीव ‘मैं’ और ‘मेरा’ की भ्रांति में फँसा रहता है।

यह प्रतिबिम्बित चेतना निरन्तर देह, इन्द्रियों, मन और उनकी क्रियाओं में ही अपने को स्थापित करती है। जब शरीर खाता है तो विज्ञानमय कोश कहता है—‘मैं खा रहा हूँ’। जब इन्द्रियाँ किसी विषय का अनुभव करती हैं तो यह मान लेता है—‘मैं सुख पा रहा हूँ, मैं दुख पा रहा हूँ’। बुद्धि का निर्णय भी इसे अपना लगता है—‘मैंने ऐसा विचार किया, मैंने ऐसा निश्चय किया’। यही निरन्तर का अभिमान जीव को संसार-चक्र से बाँधे रखता है, क्योंकि कर्तृत्व और भोक्तृत्व का अनुभव ही कर्मबंधन का कारण है।

शंकराचार्य यहाँ इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं कि विज्ञान नामक यह शक्ति आत्मा की नाहीं, बल्कि प्रकृति की है—एक विकार, एक उपाधि। पर जब चेतना इसमें प्रतिबिम्बित होती है तो यह उपाधि एक जीव-भाव का रूप ले लेती है। यह उसी प्रकार है जैसे शांत जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब वास्तविक चन्द्रमा नहीं है, पर देखने वाले को दोनों में भेद समझ नहीं आता। इसी प्रकार जीव में दिखाई देने वाला ‘मैं’ का भाव आत्मा नहीं है—वह केवल बुद्धि में प्रतिबिम्बित चैतन्य है। यह अभिमान यदि न रहे, तो जीव अपने मूल स्वरूप—स्वयं शुद्ध, अविकार, निष्क्रिय, सच्चिदानन्द आत्मा—को जान ले।

अतः श्लोक की शिक्षा है कि जो ‘मैं जानता हूँ, मैं करता हूँ’ ऐसा देह-अधिष्ठित अहंकार है, वह केवल विज्ञानमय कोश का कार्य है—अर्थात् माया का एक आवरण। इसको जानकर साधक के भीतर वैराग्य, विवेक और निरहंता की भावना दृढ़ होती है। जब साधक इस विज्ञानमय कोश को भी ‘अनात्म’ जानकर उससे अलग होता है, तब वह साक्षी-स्वरूप आत्मा का अनुभव करता है। यह ज्ञान ही बंधन-विनाश का मार्ग है, क्योंकि जहाँ ‘मैं’ नहीं, केवल साक्षी-चेतना है, वहाँ संसार, कर्तृत्व और अभिमान का कोई स्थान रह ही नहीं जाता।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.

"For more information, please click the link below."
www.sadhanapath.in