"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 188, 189, 190वां श्लोक"
"विज्ञानमय कोश"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अनादिकालोऽयमहंस्वभावो जीवः समस्तव्यवहारवोढा।
करोति कर्माण्यपि पूर्ववासनः पुण्यान्यपुण्यानि च तत्फलानि ॥ १८८ ॥
भुङ्क्ते विचित्रास्वपि योनिषु व्रज-न्नायाति निर्यात्यध ऊर्ध्वमेषः ।
अस्यैव विज्ञानमयस्य जाग्रत्-स्वप्नाद्यवस्था सुखदुःखभोगः ॥ १८९ ॥
देहादिनिष्ठाश्रमधर्मकर्म-गुणाभिमानं सततं ममेति ।
विज्ञानकोशोऽयमतिप्रकाशः प्रकृष्टसान्निध्यवशात्परात्मनः ।
अतो भवत्येष उपाधिरस्य यदात्मधीः संसरति भ्रमेण ॥ १९०॥
अर्थ:-यह अहंस्वभाव वाला विज्ञानमय कोश ही अनादिकालीन जीव और संसार के समस्त व्यवहारों का निर्वाह करने वाला है। यह अपनी पूर्व-वासना से पुण्य-पापमय अनेकों कर्म करता और उनके फल भोगता है तथा विचित्र योनियों में भ्रमण करता हुआ कभी नीचे आता और कभी ऊपर जाता है। जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाएँ, सुख-दुःख आदि भोग, देहादि से सम्बन्धित आश्रमादि के धर्म-कर्म, गुणों का अभिमान और ममता आदि सर्वदा इस विज्ञानमय कोश में ही रहते हैं। यह आत्मा की अति निकटता के कारण अत्यन्त प्रकाशमय है; अतः यह इसकी उपाधि है, जिसमें भ्रम से आत्मबुद्धि करके यह जन्म-मरणरूप संसार चक्र में पड़ता है।
विवेकचूडामणि के इन श्लोकों (१८८–१९०) में आदि शंकराचार्य विज्ञानमय कोश—अर्थात् बुद्धि, अहंकार और मन की शक्तियों से युक्त वह सूक्ष्म परत—का सूक्ष्म, गहन और अत्यन्त दार्शनिक विश्लेषण करते हैं, जो वास्तव में जीवभाव का आधार है। आत्मा स्वयं तो निष्क्रिय, शुद्ध, सच्चिदानंदस्वरूप है, परन्तु जब वह इस विज्ञानमय कोश के अत्यन्त निकट प्रतिबिम्बित होता है, तब जीव के रूप में प्रतीत होता है। विज्ञानमय कोश ही वह माध्यम है जिससे ‘मैं’ का अनुभव, कर्तापन, भोक्तापन, धर्म-अधर्म, जन्म-मरण और विविध अवस्थाओं का अनुभव सम्भव होता है। इन श्लोकों में शंकराचार्य इस पूरे यंत्रणा-चक्र को, उसकी जड़ और उसके परिणाम को अद्वैत-दृष्टि से अत्यंत स्पष्ट कर देते हैं।
श्लोक १८८ कहता है: अनादिकाल से यह अहंभाव—‘मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ’—जीव का स्वभाव बन चुका है। इस विज्ञानमय कोश में स्थित होकर जीव अनगिनत जन्मों से संसार के समस्त व्यवहारों को करता आया है। यहाँ ‘अहं-स्वभाव’ का अर्थ यह नहीं है कि आत्मा में सचमुच अहंकार है; बल्कि इसका अर्थ है कि जीव, जो मूलतः आत्मा का ही प्रतिबिम्ब है, अपने को विज्ञानमय कोश से तादात्म्य करके ही ‘मैं-भाव’ का अनुभव करता है। यह ‘अहं’ वस्तुतः पर्दे पर पड़ी एक छाया की तरह है—स्थायी नहीं, परन्तु दीर्घकालीन अभ्यास से अत्यंत यथार्थ प्रतीत होने वाला। इस विज्ञानमय कोश की वृत्तियाँ निरंतर प्रवाहित रहती हैं; पुरानी जन्म-जन्मान्तरों की वासनाएँ इसमें संग्रहित रहती हैं। यही वासनाएँ जीव को नित्य कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं—कभी पुण्य, कभी पाप। और जैसा कर्म, वैसा उसका फल। फल उपभोगे बिना वासनाएँ समाप्त नहीं होतीं; वासनाओं के रहते जनन-मरण का चक्र रुकता नहीं। इसलिए जीव अनादिकाल से इस कर्म-वासनाओं की लहरों में डूबता-उतराता हुआ जीवन की नाना गतियों को अनुभव करता आया है।
शंकराचार्य दूसरे पद में बताते हैं कि यह विज्ञानमय कोश ही जीव को विचित्र योनियों में भटकने के लिए बाध्य करता है। कर्म और वासनाएँ जब तक हैं, तब तक किसी न किसी शरीर में प्रवेश करना अनिवार्य है। कभी कर्मों के फल से वह उच्च लोकों में जाता है, कभी निम्न योनियों में गिरता है, कभी मनुष्य जन्म पाता है, कभी अन्य रूपों में। यह ऊपर-नीचे चलने का क्रम विज्ञानमय कोश के ही द्वारा संभ्रांत चित्त के कारण चलता है। इसके भीतर कर्मों के संस्कार, इच्छाएँ, कल्पनाएँ और स्मृतियाँ रहती हैं, जो मृत्यु के बाद भी नष्ट नहीं होतीं। देह का नाश हो जाता है, पर विज्ञानमय कोश वासनाओं के साथ आगे बढ़ जाता है। इस कोश के रहते ही जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाएँ अनुभव होती हैं। जगत की अनुभूति, स्वप्न में मन की चित्र-रचना, सुख-दुःख का अनुभव—सब कुछ इसी कोश में घटित होता है। आत्मा तो सदा एकरस, साक्षी और अपरिवर्तनीय है; पर जीव के रूप में अनुभूति विज्ञानमय कोश के माध्यम से होती है।
इसी दृष्टि से श्लोक १८९ कहता है कि जाग्रत् और स्वप्न आदि अवस्थाएँ, सुख-दुःख और सभी प्रकार के भोग विज्ञानमय कोश में ही घटित होते हैं। आत्मा न तो सुखी होता है, न दुखी; पर जीव, जो बुद्धि के साथ तादात्म्य करके स्वयं को सीमित मान लेता है, इन अनुभवों को आत्मा में आरोपित कर बैठता है। विज्ञानमय कोश प्रकाशमय है क्योंकि इसके साथ आत्मा का सान्निध्य अत्यन्त निकट है। जैसे सूर्य के अत्यधिक निकट की वस्तु अधिक चमकती है, वैसे ही बुद्धि भी आत्मा के प्रकाश से अत्यंत प्रकाशित दिखती है। इसी कारण बुद्धि स्वयं को आत्मा समझ बैठती है—और यही है अविद्या का मूल। आत्मा का प्रकाश बुद्धि को चेतन प्रतीत कराता है, पर बुद्धि स्वयं प्रकाश का स्रोत नहीं है। अतः ‘मैं जानता हूँ’, ‘मैं देखता हूँ’, ‘मैं करता हूँ’—यह सब बुद्धि का आत्मा का प्रकाश उधार लेकर बोलना है।
अगले श्लोक में (१९०) शंकराचार्य विज्ञानमय कोश की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विशेषता बताते हैं—यह अत्यन्त प्रकाशित है, पर प्रकाश आत्मा का है; इसलिए यह बड़ा छलपूर्ण है। शरीर, इन्द्रियाँ, आश्रमों के कर्तव्य, वर्ण और गुणों के प्रति जो अहंता और ममता होती है, वह विज्ञानमय कोश की ही देन है। बुद्धि का यह स्वभाव है कि वह शरीर के धर्म-कर्म को ‘मेरा’ मानती है और कर्ता-भाव को दृढ़ करती है। यही कर्ता-भाव आगे चलकर भोक्ता-भाव को जन्म देता है—और यही संसार का कारण बनता है। जब किसी विशेष धर्म, जाति, भूमिका या गुण से सम्बद्ध होकर बुद्धि कहती है—‘मैं ऐसा हूँ’, ‘मेरी प्रकृति ऐसी है’, ‘मेरी पहचान यह है’, तभी जीवभाव दृढ़ होता है और आत्म-स्मृति का लोप होता है। जीव संसार में बँध जाता है क्योंकि वह शरीर-अधिष्ठित कर्मों का कर्ता होने का दावा करता है, और यदि कर्तापन है तो फलों का अनुभव भी अनिवार्य है।
शंकराचार्य आगे समझाते हैं कि विज्ञानमय कोश आत्मा की उपाधि है—क्योंकि वह आत्मा के निकट स्थित होकर आत्मा की ही छाया से युक्त है। यह उपाधि ही जीवभाव पैदा करती है। उपाधि का अर्थ है—ऐसी चीज़ जो पास होने से वास्तविक वस्तु को परिवर्तित नहीं करती, पर देखने वाले को भ्रम पैदा करती है। जैसे क्रिस्टल के पास नीला फूल रखने पर क्रिस्टल नीला दिखता है, पर वह वास्तव में नीला नहीं होता। उसी प्रकार आत्मा वास्तव में कर्ता-बोक्ता नहीं है, पर विज्ञानमय कोश की नज़दीकी के कारण जीव ऐसा मान बैठता है कि ‘मैं ही कर्ता हूँ’। यह भ्रम ही संसार चक्र की जड़ है। इसी भ्रम से जीव पुनः-पुनः जन्म लेता है, कर्म करता है और कर्म के फलों को भोगता है।
इस प्रकार इन श्लोकों का समग्र अर्थ यह है कि जीव का अनुभव, उसका व्यक्तित्व, उसकी इच्छाएँ, उसका सुख-दुःख, कर्तापन, भ्रमण, जन्म-मरण—सब कुछ विज्ञानमय कोश की क्रिया के कारण है, न कि आत्मा की वास्तविक प्रकृति के कारण। आत्मा तो सदा मुक्त, अकर्ता और नित्य है; पर जीव विज्ञानमय कोश से तादात्म्य कर लेता है और अपने आपको सीमित मानने लगता है। विज्ञानमय कोश के भीतर की वासनाएँ अनादि हैं, इसलिए यह संसार का चक्र अनादि प्रतीत होता है। बुद्धि आत्मा के प्रकाश से प्रकाशित होकर स्वयं को चेतना का स्वरूप मान लेती है—और यही आधार है उसकी गलत पहचान का। जब तक यह गलत पहचान बनी रहती है, तब तक जीव संसार का अनुभव करता रहता है। पर जब साधक विवेक से यह समझता है कि बुद्धि, मन और अहंकार सब उपाधियाँ हैं और मैं उनसे परे शुद्ध साक्षी हूँ—तभी यह भ्रम मिटता है और जीव मोक्ष का अधिकारी बनता है।
इन श्लोकों का संदेश अत्यंत स्पष्ट है—संसार बाहरी नहीं है, वह विज्ञानमय कोश के भीतर चलने वाली चित्तरंजनाओं का खेल है। जन्म-मरण, सुख-दुःख, कर्तापन-बोक्तापन सब मन और बुद्धि में ही व्यापार करते हैं। आत्मा साक्षी है, पर जब वह बुद्धि से तादात्म्य करता हुआ जीव बनता है, तब संसार का जाल अनवरत चलता रहता है। अतः साधक का प्रयास विज्ञानमय कोश से स्वयं को अलग पहचानने का होना चाहिए। जैसा शंकराचार्य आगे कहते हैं—विज्ञानमय कोश का त्याग नहीं, परन्तु उससे असंग रहना ही मुक्ति का पथ है। जब बुद्धि को समझ आता है कि वह प्रकाश का स्रोत नहीं, बल्कि एक दर्पण मात्र है, तब वह नम्र होती है, शांत होती है, और आत्मज्ञान के लिए मार्ग प्रशस्त करती है।
इन श्लोकों की गहराई यह मर्म खोलती है कि जीव का पूरा संसार विज्ञानमय कोश का निर्मित किया हुआ एक मनोवैज्ञानिक संसार है। आत्मा के लिए न कोई जन्म है न मृत्यु, न कोई गति है, न कोई गुलामी। पर जीव—जो बुद्धि से तादात्म्य कर चुका है—वह अनंत जन्मों से इस चक्र में पड़ा है। इस तथ्य को समझना ही अध्यात्म के पथ की शुरुआत है। विवेक, वैराग्य, शमादि-साधन और गुरु-शास्त्र की कृपा से जब यह भ्रान्ति टूटती है, तब विज्ञानमय कोश एक साधन बन जाता है, बाधा नहीं। और तब जीव अपने ‘अहम्’ को विज्ञानमय कोश में न देखकर आत्मा में खोजता है, जहाँ केवल एक ही सत्य है—नित्य, व्यापक और मुक्त।
इसीलिए शंकराचार्य इन श्लोकों द्वारा साधक को सूचित करते हैं कि विज्ञानमय कोश का प्रकाश वास्तविक नहीं, उधार लिया हुआ है। उसकी चंचलता, कर्मशीलता और वासनाएँ ही जीव को संसार में बाँधे हुए हैं। इन्हें जानकर उनसे असंग रहना ही आत्मज्ञान की कुंजी है। इस गहन विवेचन से साधक समझता है कि जीवभाव मिथ्या है, आत्मभाव ही सत्य है—और यही समझ मोक्ष का प्रथम द्वार है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!