"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 200वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आत्मज्ञान ही मुक्ति का उपाय है।
"श्रीगुरुरुवाच"
अनादित्वमविद्यायाः कार्यस्यापि तथेष्यते । उत्पन्नायां तु विद्यायामाविद्यकमनाद्यपि ॥ २०० ॥ प्रबोधे स्वप्नवत्सर्वं सहमूलं विनश्यति ।
अर्थ:-लोक में अविद्या और उसके कार्य जीव-भाव का अनादित्व माना जाता है। किन्तु जग पड़ने पर जैसे सम्पूर्ण स्वप्न-प्रपंच अपने मूलसहित नष्ट हो जाता है उसी प्रकार ज्ञानोदय होने पर अविद्या-जनित जीव-भाव का नाश हो जाता है।
विवेकचूडामणि के इस महत्त्वपूर्ण श्लोक में शंकराचार्य अविद्या के अनादित्व, उसके कार्य–रूप जीवभाव और ज्ञान की परिवर्तनकारी शक्ति का अत्यंत गहन विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। श्लोक कहता है कि अविद्या और उससे उत्पन्न जीवभाव—दोनों को ही शास्त्रों में अनादि माना गया है। ‘अनादि’ का अर्थ यह नहीं कि वे नित्य या वास्तविक हैं, बल्कि यह कि उनका कोई प्रारम्भ बोधगम्य नहीं है; वे समय से परे हैं, परन्तु नित्य नहीं। अविद्या का अनादित्व केवल व्यवहारिक सत्य (व्यवहारिक सत्) के स्तर पर है, न कि परमार्थिक सत्य के स्तर पर। अविद्या का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं, वह केवल ज्ञानाभाव के कारण प्रतीत होती है। जैसे अंधकार का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं, परन्तु प्रकाश के अभाव में वह दीखता है, उसी प्रकार अविद्या भी ज्ञान के न रहते हुए सत्य प्रतीत होती है।
जीवभाव भी इसी अविद्या का कार्य है। आत्मा तो निराकार, अचिन्त्य, निर्विकारी, सर्वव्यापक और सच्चिदानन्दस्वरूप है, लेकिन बुद्धि के उपाधि से जुड़ने पर वह स्वयं को ‘जीव’—कर्त्ता, भोक्ता, सीमित, दुखी—के रूप में अनुभव करता है। शास्त्र कहते हैं कि यह जीवभाव भी अनादि है क्योंकि इसका भी कोई आरम्भ नहीं दिखता; जन्म-जन्मान्तर से मनुष्य इसी अनुभव में बंधा रहा है। तथापि, यह अनादि अवश्य है, पर अनन्त नहीं। इसी तथ्य को शंकराचार्य ‘उत्पन्नायां विद्यायामाविद्याकमनाद्यपि’ द्वारा स्पष्ट करते हैं—अर्थात् ज्ञान उत्पन्न होते ही अविद्या का अंत हो जाता है, भले ही वह अनादि हो। अनादि होना और अनन्त होना एक नहीं। जो ज्ञान के उदय पर नष्ट हो जाए, वह मिथ्या है; और अविद्या भी एक ऐसी ही मिथ्या सत्ता है।
इस सत्य को और अधिक स्पष्ट करने हेतु शंकराचार्य स्वप्न का अद्भुत उदाहरण देते हैं—“प्रबोधे स्वप्नवत् सर्वं सहमूलं विनश्यति”। जैसे स्वप्न में अनेक दृश्य, वस्तुएँ, आनंद, भय, संबंध, यात्राएँ—समूचा स्वप्न जगत—पूर्ण वास्तविक प्रतीत होता है। स्वप्न के भीतर रहते हुए हम कभी संदेह नहीं करते कि यह असत्य है। परन्तु जागरण होने पर उसी क्षण पूरा स्वप्न-प्रपंच, उसके कारणों सहित, पूर्णतः नष्ट हो जाता है। वह नाश बाहरी क्रिया से नहीं होता; जागने के लिए कोई अलग प्रयास नहीं चाहिए, केवल चेतना का परिवर्तन पर्याप्त है। जैसे ही जागृति आती है, स्वप्न का पूरा संसार बिना किसी अवशेष के मिट जाता है। यह नाश वास्तविक है, क्योंकि स्वप्न स्वयं वास्तविक न था; केवल अज्ञान के कारण वह सत्य प्रतीत हो रहा था।
उसी प्रकार आत्मज्ञान के उदय से अविद्या और जीवभाव का संपूर्ण समूह—‘अविद्या, उसके विकार, उसके कारण, उसके फल’—सब कुछ सहमूल नष्ट हो जाता है। ज्ञान किसी कार्य की तरह अविद्या को धीरे-धीरे समाप्त नहीं करता; प्रकाश आने पर अंधकार जैसे त्वरित नष्ट होता है, वैसे ही आत्मस्वरूप की पहचान होने पर जीवभाव तत्काल मिट जाता है। उस क्षण ज्ञानी को स्पष्ट अनुभव होता है कि वह कभी जीव था ही नहीं—यह केवल उपाधि का भ्रम था। आत्मा सदा स्वतंत्र, शुद्ध, अकर्त्ता, अभोक्ता और सर्वव्यापक है।
अतः, इस श्लोक की शिक्षा यह है कि अविद्या चाहे अनादि हो, परन्तु वह नित्य नहीं है। जैसे स्वप्न जागरण से मिट जाता है, वैसे ही ज्ञान—श्रवण, मनन और निदिध्यासन से प्राप्त आत्मसाक्षात्कार—होने पर अविद्या और उससे जुड़े सभी मिथ्या अनुभव स्वतः विलीन हो जाते हैं। यही मोक्ष का सार और अद्वैत वेदान्त का परम सत्य है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!