"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 201वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आत्मज्ञान ही मुक्ति का उपाय है।
"श्रीगुरुरुवाच"
अनाद्यपीदं नो नित्यं प्रागभाव इव स्फुटम् ॥ २०१ ॥ अनादेरपि विध्वंसः प्रागभावस्य वीक्षितः ।
अर्थ:-यह जीव-भाव अनादि होने पर भी प्रागभाव के समान नित्य नहीं है, क्योंकि अनादि प्रागभाव का भी ध्वंस होना देखा ही गया है।
विवेकचूडामणि के इन श्लोकों में शंकराचार्य जीव-भाव की अनादित्वता और उसके नाश के संबंध में एक अत्यंत सूक्ष्म और गहन तात्त्विक सत्य स्पष्ट करते हैं। शिष्य का भ्रम यह है कि यदि जीव-भाव अनादि है तो क्या वह नित्य भी होगा? यदि वह नश्वर नहीं है तो मोक्ष कैसे संभव होगा? गुरु इस शंका को दूर करते हुए बताते हैं कि ‘अनादि’ का अर्थ ‘अनन्त’ या ‘नित्य’ नहीं होता। बहुत-सी वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनका आरम्भ हमें दिखाई नहीं देता—वे अनादि कही जाती हैं—परंतु उनका नाश अवश्य होता है। इसी तथ्य को समझाने के लिए आचार्य ‘प्रागभाव’ अर्थात् किसी वस्तु के उत्पन्न होने से पहले उसकी अनुपस्थिति का उदाहरण देते हैं।
प्रागभाव भी अनादि है—क्योंकि किसी भी वस्तु के अस्तित्व में आने से पहले उसकी ‘अनुपस्थिति’ का कोई आरम्भ नहीं माना जाता। उदाहरण के लिए, एक मिट्टी के घड़े के बनने से पहले अनंत काल तक उसका घड़ा-रूप नहीं था। यह ‘न-होना’ अनादि है, क्योंकि यह कहना संभव नहीं कि घड़े के ‘अभाव’ का आरम्भ कब हुआ। परंतु यह ‘अनादि अभाव’ भी नित्य नहीं है, क्योंकि जैसे ही घड़ा अस्तित्व में आता है, प्रागभाव नष्ट हो जाता है। इस प्रकार, अनादित्व नित्यत्व का प्रमाण नहीं है।
गुरु इसी तर्क का विस्तार जीव-भाव पर लागू करते हैं। जीव-भाव अर्थात् आत्मा का देह, मन, बुद्धि और उपाधियों के साथ तादात्म्य करना—यह एक भ्रमजनित स्थिति है। यह अवस्था अनादि अवश्य है, क्योंकि इसकी शुरुआत का कोई समय नहीं माना जा सकता; अविद्या के कारण जीव-भाव का कल्पनात्मक उदय अनादि है। परंतु अविद्या का अनादित्व भी इस बात का प्रमाण नहीं कि वह नष्ट नहीं हो सकती। अविद्या स्वभावतः मिथ्या है, अतः उसका अंत अवश्य है। जिस प्रकार प्रागभाव का नाश घड़े के प्रकट होते ही हो जाता है, उसी प्रकार अविद्या का नाश ज्ञान के प्रकट होने पर हो जाता है।
आचार्य यह भी स्पष्ट करते हैं कि जीव-भाव कोई वस्तुतः सत्य सत्ता नहीं है। यह नित्य वस्तुओं की तरह स्वयं में कोई स्थिर अस्तित्व नहीं रखता। यह केवल अध्यास, भ्रम या अज्ञान से उत्पन्न हुआ एक आरोप है। जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम है, जो था भी नहीं और ज्ञान के आते ही नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार जीव-भाव भी ज्ञान के उदय होने पर नष्ट हो जाता है। इसकी अनादित्वता मात्र यह दर्शाती है कि यह कब प्रारम्भ हुआ, यह मापा नहीं जा सकता—परंतु यह नित्य नहीं है, इसलिए इसका अंत संभव है।
जब शिष्य यह मानता है कि जीव-भाव अनादि है, तो वह स्वभावतः भयभीत होता है कि यदि यह अनादि है तो क्या यह नित्य भी होगा? क्या आत्मा का संसार-चक्र कभी समाप्त नहीं होगा? आचार्य का उत्तर अत्यंत आश्वस्त करने वाला है—अविद्या अनादि अवश्य है, लेकिन नित्य नहीं। अविद्या का नाश केवल ज्ञान से होता है और ज्ञान के उदय के साथ ही जीव-भाव पूर्णतया लीन हो जाता है।
यह शिक्षा अद्वैत वेदान्त के मूल सिद्धान्त को स्थापित करती है कि आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त है। जीव-भाव केवल अविद्या का आरोप है—उदाहरण की भाषा में मिट्टी पर घड़े का नाम-रूप आरोपित है। मिट्टी वास्तव में घड़ा नहीं होती, उसी प्रकार आत्मा वास्तव में जीव नहीं होती। जब ज्ञान का उदय होता है और आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में जानी जाती है, तब जीव-भाव उसी प्रकार विलीन हो जाता है जैसे सूर्य के निकलते ही अंधकार।
इस प्रकार, इन श्लोकों का सार यह है कि जीव-भाव अनादि तो है, पर नित्य नहीं। उसका नाश अवश्य है, और मुक्त आत्मा का अनुभव तभी संभव है जब यह कल्पित जीव-भाव ज्ञान से नष्ट हो जाए।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!