"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 199वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आत्मज्ञान ही मुक्ति का उपाय है।
"श्रीगुरुरुवाच"
यावद् भ्रान्तिस्तावदेवास्य सत्ता मिथ्याज्ञानोज्जृम्भितस्य प्रमादात् ।
रज्ज्वां सर्पो भ्रान्तिकालीन एव भ्रान्तेर्नाशे नैव सर्पोऽपि तद्वत् ॥ १९९॥
अर्थ:-जैसे भ्रम की स्थितिपर्यन्त ही रज्जु में सर्प की प्रतीति होती है, भ्रम के नाश होने पर फिर सर्प प्रतीत नहीं होता, वैसे ही जब तक भ्रम है, तभी तक प्रमाद वश मिथ्या ज्ञान से प्रकट हुए इस (जीव-भाव) की सत्ता है।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक जीवभाव की असत्यता और अज्ञान की काल्पनिक सत्ता को अत्यंत सरल उपमान से स्पष्ट करता है। यहाँ शंकराचार्य रज्जु-सर्प के प्रसिद्ध उदाहरण द्वारा यह समझाते हैं कि जीवभाव वास्तव में आत्मा का स्वभाव नहीं है, बल्कि केवल अज्ञान (अविद्या) से उत्पन्न एक मिथ्या प्रतीति है। जैसे किसी अँधेरे में व्यक्ति रज्जु को सर्प मान लेता है, वैसे ही अज्ञान से वास्तविक आत्मा को सीमित, कर्ता, भोक्ता, शरीरधारी जीव के रूप में देख लिया जाता है। श्लोक कहता है—यावद् भ्रान्ति: तावदेव आस्य सत्ता—जब तक भ्रांति है, तभी तक इस जीवभाव की सत्ता प्रतीत होती है। अर्थात, जीवभाव का अस्तित्व आत्मा की दृष्टि से नित्य सत्य नहीं है; उसका अस्तित्व केवल अज्ञान के बने रहने तक सीमित है।
रज्जु में सर्प की प्रतीति पूरी तरह भ्रमजन्य है। वास्तविकता में न तो रज्जु में कोई परिवर्तन हुआ है, न सर्प कभी वहाँ था। सर्प केवल मन का प्रक्षेप है। उसी प्रकार, आत्मा सर्वदा एक, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, निरुपाधिक और परिपूर्ण है; उसमें जीवभाव नाम का कोई विकार कभी उत्पन्न नहीं होता। यह जीवभाव भी केवल बुद्धि-उपाधि में उत्पन्न होने वाला अज्ञानजन्य आभास है। जिस प्रकार सर्प की उपस्थिति पूर्णतया अज्ञान पर आधारित है, उसी प्रकार जीवभाव—कि “मैं कर्ता हूँ, भोक्ता हूँ, सीमित हूँ”—यह भी केवल भ्रांति से उत्पन्न है। आत्मा के स्वरूप में न यह सीमितता है, न कर्तृत्व, न भोक्तृत्व, और न ही जन्म-मरण का चक्र।
श्लोक आगे कहता है—मिथ्याज्ञानोज्जृम्भितस्य प्रमादात्—यह जीवभाव मिथ्या ज्ञान से, प्रमाद के कारण प्रकट हुआ है। प्रमाद का अर्थ है अपने वास्तविक स्वरूप को तजकर शरीर-मन-इन्द्रियों को “मैं” मान लेना—यही अज्ञान का मूल है। जैसे रज्जु में सर्प की स्थिरता केवल तब तक है जब तक देखने वाला अपनी भूल में रहता है, वैसे ही जीवभाव तब तक अनुभव में आता है जब तक साधक आत्मा को न पहचानकर शरीर में ही “मैं” का आरोप करता रहता है। वास्तव में यह जीवभाव कभी सत्य नहीं होता; वह आत्मा पर अध्यारोपित एक असत्य कल्पना है।
श्लोक का मूल संदेश अंतिम पंक्ति में प्रकट होता है—भ्रान्तेर्नाशे नैव सर्पोऽपि तद्वत्—अर्थात जिस क्षण भ्रम मिट जाता है, उसी क्षण सर्प का अस्तित्व भी मिट जाता है; रज्जु ही स्पष्ट रूप में दिखाई देता है। इसी प्रकार, जब आत्मज्ञान का उदय होता है, तब जीवभाव पूर्णतया लुप्त हो जाता है। जीवभाव का अभाव किसी क्रिया से नहीं होता; वह किसी वस्तु का नाश नहीं है, बल्कि भ्रांति का नाश है। जैसे सर्प को हटाने के लिए कोई डंडा या साधन नहीं चाहिए—सिर्फ प्रकाश चाहिए—वैसे ही जीवभाव का अंत भी केवल ज्ञान से होता है, किसी क्रिया या कर्म से नहीं।
आत्मज्ञान होने पर ज्ञानी को स्पष्ट हो जाता है कि वह कभी भी शरीर या मन नहीं था—न वह जन्मा, न वह मरा, न वह बँधा, न उसे मुक्त होना है। जीवभाव का नाश आत्मा में किसी परिवर्तन का चिह्न नहीं, बल्कि केवल अज्ञान के हटने का संकेत है। आत्मा तो सदा मुक्त है, परंतु अज्ञान के रहते वह स्वयं को बँधा हुआ मान लेता है। इसलिए शंकराचार्य यहाँ यह दृढ़ करते हैं कि जीवभाव की सत्ता केवल अज्ञान-कालीन है—अज्ञान हटते ही जीवभाव भी उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जैसे प्रकाश आने पर सर्प का भ्रम। यही अद्वैत वेदांत का मुख्य सिद्धांत है कि मुक्त होने के लिए कुछ करना नहीं, बल्कि अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना ही पर्याप्त है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!