"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 191वां श्लोक"
"आत्मा की उपाधि से असंगता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृदि स्फुरत्स्वयंज्योतिः । कूटस्थः सन्नात्मा कर्ता भोक्ता भवत्युपाधिस्थः ॥ १९१ ॥
अर्थ:-यह जो स्वयंप्रकाश विज्ञानस्वरूप हृदय के भीतर प्राणादि में स्फुरित हो रहा है, वह कूटस्थ (निर्विकार) आत्मा होने पर भी उपाधि वश कर्ता भोक्ता हो जाता है।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक जीव और आत्मा के अत्यंत सूक्ष्म भेद को स्पष्ट करता है, जिसे समझना आत्मविवेक की साधना में अनिवार्य है। शंकराचार्य यहाँ बताते हैं कि हृदय में प्राणों के माध्यम से जो विज्ञानमय चेतना स्फुरित हो रही है, वह मूलतः आत्मा ही है—स्वयंज्योति, स्वयं प्रकाशमान। यह किसी बाहरी प्रकाश या ज्ञान का मोहताज नहीं है; इसके ज्ञान के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि इसे ‘स्वयंज्योतिः’ कहा गया है। हृदय में चेतना का स्फुरण केवल यह बताने के लिए है कि यही वह सत्ता है जो हमारे भीतर अनुभव स्वरूप प्रकट होती रहती है।
यद्यपि आत्मा का स्वभाव कूटस्थ है—अर्थात् अचल, अविकार, सदा एकरस, किंतु उपाधियों के संपर्क में आने पर वह कर्ता और भोक्ता के रूप में प्रतीत होता है। ‘कूटस्थ’ शब्द का अभिप्राय है कि जैसे निहाई (कूट) पर हथौड़े की चोटें पड़ती हैं, पर वह स्वयं नहीं बदलती—वैसे ही आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता। वह न जन्म लेती है, न मरती है, न सुख-दुःख का अनुभव करती है; वह केवल साक्षी है। परंतु जब वह उपाधियों — देह, प्राण, मन, बुद्धि आदि — के साथ तादात्म्य कर लेती है, तब वह कर्ता, भोक्ता, सुखी, दुखी, जानने वाला, करने वाला और अनुभव करने वाला प्रतीत होता है।
यहाँ ‘विज्ञानमयः’ शब्द संकेत करता है विज्ञानमय कोश की ओर, जो बुद्धि और अहंकार का क्षेत्र है। आत्मा स्वयं कभी विज्ञानमय नहीं होता, पर उसका प्रकाश विज्ञानमय कोश को चेतन बना देता है। जब चेतना बुद्धि के साथ प्रतिबिंबित होती है, तब ‘मैं जानता हूँ’, ‘मैं करता हूँ’, ‘मैं अनुभव करता हूँ’ जैसी वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। वास्तव में, जानने वाला केवल आत्मा की प्रतिच्छाया है; कर्मों का कर्तापन तथा परिणामों का भोक्तापन भी उसी प्रतिबिंबित चेतना का अनुभव है, आत्मा का नहीं। आत्मा का प्रकाश पड़े बिना विज्ञानमय कोश जड़ वस्तु के समान है। पर जब आत्मा का प्रकाश उसमें प्रतिबिंबित होता है, तब जड़ बुद्धि सक्रिय होकर चैतन्यमयी प्रतीत होती है।
उपाधिस्थ अवस्था में जीव का स्वरूप बदलता हुआ प्रतीत होता है। जैसे जल में चंद्रमा का प्रतिबिंब लहरों के साथ कांपता दिखाई देता है, जबकि आकाश का चंद्रमा अचल रहता है। ऐसे ही मन, बुद्धि, वृत्तियों, वासनाओं, सुख-दुःख के आंदोलनों में कूटस्थ आत्मा अप्रभावित रहता है, किंतु जीव के रूप में उसका प्रतिबिंब असंख्य अनुभवों से गुजरता हुआ दिखाई पड़ता है। यही कारण है कि जीव कर्म करता है, पुण्य-पाप का भागी होता है, पुनर्जन्म के चक्रों में घूमता है, और अनंत अनुभवों का संचय करता है—जबकि आत्मा सदा मुक्त, सदा पूर्ण, सदा शुद्ध है।
इस श्लोक का सार यही है कि साधक को यह पहचानना है कि भीतर जो ‘मैं’ कर्ता-भोक्ता प्रतीत होता है, वह उपाधियों से ग्रस्त जीव है, न कि वास्तविक आत्मा। जब यह भेद स्पष्ट हो जाता है, तब धीरे-धीरे आत्मा की कूटस्थ अवस्था का अनुभव होता है। मन, बुद्धि, शरीर, इंद्रियाँ—सब उपाधियाँ हैं; इनके परिवर्तन आत्मा को प्रभावित नहीं करते। यही विवेक अंततः साधक को कर्मबंधन से, कर्तापन और भोक्तापन के भ्रम से मुक्त करता है और आत्मस्वरूप में स्थित कर देता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!