"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 192वां श्लोक"
"आत्मा की उपाधि से असंगता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
स्वयं परिच्छेदमुपेत्य बुद्धे- स्तादात्म्यदोषेण परं मृषात्मनः ।
सर्वात्मकः सन्नपि वीक्षते स्वयं स्वतः पृथक्त्वेन मृदो घटानिव ॥ १९२॥
अर्थ:-वह परात्मा मिथ्या बुद्धि से परिच्छिन्न होकर उस से एकीभूत हो जाने के दोष से स्वयं सर्वात्मक होते हुए भी मिट्टी से घड़े के समान अपने को अपने ही से पृथक् देखता है।
यह श्लोक विवेकचूडामणि की उस गहन अनुभूति की ओर संकेत करता है जहाँ अद्वितीय, सर्वात्मा, अनंत ब्रह्म स्वयं को सीमित जीव के रूप में अनुभव करता है। शंकराचार्य यहाँ एक अत्यंत सूक्ष्म सत्य को स्पष्ट करते हैं—परमात्मा वास्तव में सर्वव्यापक, निरवयव, असीम और एकरस सत्ता है, परन्तु जब वही चेतना बुद्धि की सीमाओं से परिच्छिन्न होकर उसे अपना मान लेती है, तब “मैं” और “तुम”, “यह” और “वह”, “कर्ता” और “भोक्ता” जैसी भिन्नताएँ प्रकट हो जाती हैं। यह भिन्नता वास्तविक नहीं, केवल बुद्धि के अध्यास से उत्पन्न प्रतीतिमात्र है। जैसे मिट्टी से बने अनेक घड़े वास्तव में अपनी सत्ता में केवल मिट्टी ही हैं, परन्तु नाम-रूप के आधार पर वे एक-दूसरे से और मिट्टी से भिन्न लगते हैं, उसी प्रकार ब्रह्म, जो सर्वात्मा है, उपाधि—अर्थात् बुद्धि—के कारण अपने को स्वयं से भिन्न देखने लगता है।
श्लोक में कहा गया है कि “स्वयं परिच्छेदमुपेत्य”—अर्थात् चेतना स्वयं को सीमाओं में डाल लेती है। यह सीमा किसी बाहरी वस्तु द्वारा नहीं लगती, बल्कि अज्ञान (अविद्या) के कारण बुद्धि की विशेष अवस्था से लगती है। चेतना जब बुद्धि से तादात्म्य कर लेती है, तब “मैं बुद्धि हूँ”, “मैं शरीर हूँ”, “मैं करता हूँ”, “मैं भोगता हूँ”—ऐसे भाव उत्पन्न होते हैं। यही “तादात्म्यदोष”—गलत पहचान—जन्म-मरण के चक्र की मूल जड़ है। अनंत सत्ता स्वयं को सीमित जीव के रूप में देखने लगती है, और यही संसार का आरम्भ है।
शंकराचार्य कहते हैं कि यह परमात्मा “सर्वात्मकः सन्”—सबका आत्मा होते हुए भी—“स्वयं स्वतः पृथक्त्वेन वीक्षते”—अपने को स्वयं से अलग देखता है। यह अत्यंत अद्भुत विरोधाभास है। जैसे समुद्र स्वयं ही लहर बनकर अपने को समुद्र से भिन्न कहे, या जैसे सोना कंगन बनकर कहे कि “मैं सोना नहीं हूँ”—वैसा ही जीव का भ्रम है। परमात्मा अपनी ही शक्ति के कारण अपनी वास्तविकता भूलकर सीमित देह-बुद्धि रूप में व्यवहार करने लगता है। यह विस्मरण वास्तविक नहीं बल्कि अज्ञान का आवरण है, जो ज्ञान के उदय पर तुरंत नष्ट हो जाता है।
श्लोक में “मृदो घटानिव”—मिट्टी और घड़े का उदाहरण—अद्वैत वेदान्त में अत्यंत प्रसिद्ध है। घड़ा मिट्टी से भिन्न नहीं है; मिट्टी ही अलग-अलग रूपों में व्यक्त होती है। घड़े का रूप-मात्र मिट्टी पर अध्यारोपित है। उसी प्रकार यह जगत् ब्रह्म का ही नाम-रूपात्मक विस्तार है, और जीव-ब्रह्म के बीच जो भेद दिखता है, वह केवल दृष्टि-दोष है, वस्तुतः नहीं। घड़ा मिट्टी पर कोई नया अस्तित्व नहीं जोड़ता—घड़ा मात्र एक नाशवान रूप है; उसी प्रकार देह, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ भी आत्मा पर कोई नया अस्तित्व नहीं जोड़तीं—वे केवल उपाधियाँ हैं, जो बदलती रहती हैं।
जब उपाधियाँ हटती हैं—ध्यान, विवेक, वैराग्य, श्रवण-मनन-निदिध्यासन के द्वारा—तब स्पष्ट होता है कि जीव और ब्रह्म में कोई अंतर था ही नहीं। तादात्म्यदोष मिटते ही सर्वात्मा स्वरूप प्रकट हो जाता है। शंकराचार्य का उद्देश्य यही दिखाना है कि मुक्ति किसी नई अवस्था को प्राप्त करना नहीं है; बल्कि भ्रांत उपाधियों से मुक्त होकर अपने स्वभाव, “सर्वात्मभाव” की पहचान करना है। यही श्लोक का सार है: “तू वही है—सर्वव्यापक चेतना। जो भिन्नता दिख रही है, वह केवल बुद्धि की रचना, एक स्वप्न जैसी है।”
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!