Total Blog Views

Translate

गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 193वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 193वां श्लोक"

"आत्मा की उपाधि से असंगता"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

उपाधिसम्बन्धवशात्परात्मा ह्युपाधिधर्माननु भाति तद्गुणः ।

अयोविकारानविकारिवह्निवत्চি सदैकरूपोऽपि परः स्वभावात् ॥ १९३॥

अर्थ:-वह परात्मा स्वरूप से तो सदा एकरूप ही है तथपि उपाधि के सम्बन्ध से उसके गुणों से युक्त-सा होकर उसी के धर्मों के साथ प्रकाशित होने लगता है, जिस प्रकार लोहे के विकारों में व्याप्त हुआ अविकारी अग्नि उन्हीं के समान प्रकाशित होता है।

विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आदि शंकराचार्य अत्यन्त गहन अद्वैत सिद्धान्त को सरल उपमेयों के द्वारा समझाते हैं। वे कहते हैं कि परम् आत्मा—जो सदा निर्विकार, निरुपाधि, नित्य, शुद्ध और बोधस्वरूप है—उपाधियों के संयोग से मानो उन्हीं के गुणों वाला प्रतीत होता है। आत्मा स्वयं किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं करता, उसके भीतर किसी प्रकार का विकार सम्भव नहीं है; फिर भी देह, इन्द्रियों, मन और बुद्धि जैसी उपाधियों के अत्यन्त निकट सम्बन्ध के कारण वह उनके धर्मों के अनुसार प्रकाशित होता दिखता है। साधक के लिये यह भ्रम जन्म और मृत्यु के चक्र, सुख-दुःख, कर्तृत्व-भोक्तृत्व और असंख्य मानसिक अवस्थाओं का कारण बन जाता है।

उपाधि का अर्थ है—वह सीमा जिसमें असंबद्ध सत्ता भी बंधी हुई प्रतीत हो। जैसे आकाश पात्र के रूप में एक सीमा ग्रहण करता प्रतीत होता है, वैसे ही आत्मा देह-बुद्धि के साथ संयुक्त होकर प्रतीत होता है कि वह सीमित, कर्ता, भोक्ता, सुखी, दुखी या परिवर्तनशील है। परन्तु वास्तव में आत्मा इन सबके परे है, वह मात्र साक्षी है। शंकराचार्य इसकी तुलना अविकारी अग्नि से करते हैं जो लोहे को ताप और प्रकाश देते हुए उसी के विकारों में व्याप्त होता है। जब लोहा लाल-तप्त हो जाता है तो देखने वाले को लगता है कि अग्नि लाल है, कठोर है या बदल गई है; परन्तु अग्नि का स्वभाव न बदलता है न उसमें कोई विकार आता है। लोहे के परिवर्तन अग्नि से सम्बद्ध होने के कारण अग्नि के ही परिवर्तन माने जाते हैं, जबकि वास्तव में अग्नि मात्र अपने स्वरूप में रहती है। इसी प्रकार आत्मा देह के सुख-दुःख को अपना मान लेता है और अज्ञानवश स्वयं को ही परिवर्तनीय समझ बैठता है।

यह समझना अत्यावश्यक है कि आत्मा का उपाधियों से कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है—सिर्फ ‘संबद्धता का आभास’ है। जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब दिखाई देता है पर दर्पण छू नहीं सकता, वैसे ही आत्मा मन और बुद्धि में परिलक्षित होती है पर उनसे स्पर्शरहित रहती है। मन में यदि क्रोध है तो आत्मा क्रोधित प्रतीत होती है; बुद्धि में यदि निर्णय है तो आत्मा को कर्ता माना जाता है। यही भ्रम जीव का आधार बनता है। जब तक यह भ्रम बना रहता है, मनुष्य स्वयं को देह ही मानता है और संसार के अधीन रहता है।

साधना का लक्ष्य यह पहचानना है कि परात्मा सदा एकरस है—नित्य, अविकारी और शुद्ध। जैसे सूर्य पर बादलों का प्रभाव नहीं पड़ता, वैसे ही आत्मा पर मन-बुद्धि का कोई वास्तविक प्रभाव नहीं होता। जब साधक अपनी चेतना को बाह्य उपाधियों से हटाकर आत्मस्वरूप में स्थिर करता है, तब उसे ज्ञात होता है कि जो सुख-दुःख, जड़ता, विकार, परिवर्तन, कर्तापन और भोक्तापन वह अब तक स्वीकार करता रहा, वे सब मन-उपाधि के थे, आत्मा के नहीं। यह बोध ही मोक्ष का आरम्भ है।

इस प्रकार इस श्लोक का सार यह है कि उपाधियों के साथ सम्बन्ध का भ्रम ही सीमित ‘जीव’ की अनुभूति कराता है, जबकि वास्तविकता में सबके भीतर जो परब्रह्म विद्यमान है, वह सतत शुद्ध, अविकारी और एकरस चैतन्य मात्र है। इसे पहचान कर ही साधक असली स्वतंत्रता और आनन्द को प्राप्त करता है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.

"For more information, please click the link below."
www.sadhanapath.in