"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 194वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मुक्ति कैसे होगी ?
"शिष्य उवाच"
भ्रमेणाप्यन्यथा वास्तु जीवभावः परात्मनः । तदुपाधेरनादित्वान्नानादेर्नाश इष्यते ॥ १९४॥
अर्थ:-शिष्य- हे गुरुदेव ! भ्रम से हो अथवा किसी अन्य कारण से, परात्मा को ही जीव-भाव की प्राप्ति हुई है; और उसकी उपाधि अनादि है तथा अनादि वस्तु का नाश हो नहीं सकता।
विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आदि शंकराचार्य जीवभाव की उत्पत्ति, उसके कारण और उसके निवारण की प्रक्रिया को अत्यंत गहन वेदान्तिक दृष्टि से समझाते हैं। शिष्य पूछता है कि हे गुरुदेव! यदि परमार्थ रूप आत्मा को ही किसी भ्रम या किसी अन्य कारण से जीवत्व की प्राप्ति हुई है, और यह उपाधि—अविद्या—अनादि कही गई है, तो अनादि वस्तु का नाश कैसे संभव है? इस प्रश्न के भीतर अद्वैत वेदान्त का मूल रहस्य छिपा है। गुरु इस बात को स्पष्ट करते हैं कि जीवभाव की उत्पत्ति वास्तविक नहीं है; वह केवल उपाधि जन्य है, और उपाधि स्वयं मिथ्या है। “भ्रमेणाप्यन्यथा वास्तु”—वस्तु अर्थात् आत्मा, अपने स्वरूप से परे जाकर कभी भी अन्य नहीं हो सकता, परन्तु भ्रम के कारण वह अन्य जैसा प्रतीत होता है। जैसे रस्सी होने पर भी अंधकार में वह सांप के रूप में दिखाई देती है, पर वास्तव में वह सांप न कभी था, न है—सिर्फ प्रतीत मात्र था, उसी प्रकार आत्मा भी न कभी जीव हुआ, न है; परन्तु अविद्या-वश वह जीवभाव को अनुभव करता है।
श्लोक का अगला भाग कहता है—“तदुपाधेरनादित्वान्”—यह उपाधि अर्थात अविद्या अनादि है, यानी इसका कोई प्रारम्भ नहीं माना जाता। यहाँ ‘अनादि’ का अर्थ यह नहीं कि यह सत्य है, बल्कि यह कि इसकी उत्पत्ति का कोई काल नहीं बतलाया जा सकता। जैसे स्वप्न का कोई आरम्भिक क्षण हम नहीं पकड़ पाते, परन्तु जागरण होते ही उसका अभाव सिद्ध हो जाता है, उसी प्रकार अविद्या का भी कोई वास्तविक आरम्भ नहीं है, परन्तु ज्ञान के उदय से उसका नाश हो जाता है। यह अनादि होने पर भी अनन्त नहीं है, क्योंकि उसका अस्तित्व मिथ्या है। वेदान्त का सिद्धांत है—“अनादि अविद्या विद्यानिर्धन्या”—अविद्या का नाश ज्ञान से ही होता है।
अगला वाक्य—“नानादेर्नाश इष्यते”—यदि जीवभाव उपाधि के कारण से उत्पन्न है और उपाधि अनादि है, तो क्या इसका कभी नाश नहीं होगा? शंकराचार्य यह स्पष्ट करते हैं कि अनादि होने का अर्थ अविनाशी होना नहीं है। अविद्या अनादि है परन्तु सद्य:नाशी है—ज्ञान होते ही वह उसी क्षण समाप्त हो जाती है। जैसे सूर्य उदित होते ही अंधकार का तत्काल नाश हो जाता है, वैसे ही आत्म-स्वरूप के प्रत्यक्ष ज्ञान से जीवभाव का अन्त हो जाता है। जीवभाव का नाश वस्तुतः नाश नहीं है, बल्कि भ्रान्ति का निवृत्ति है। रस्सी में सांप को हटाने का अर्थ सांप का नाश नहीं, बल्कि भ्रान्ति का निवारण है। सांप कभी था ही नहीं, फिर उसके नाश की बात करना व्यर्थ है। इसी प्रकार जीवभाव का नाश भी वास्तव में उसके असत् होने की पुष्टि मात्र है।
आत्मा सदैव परिपूर्ण, सर्वव्यापक, निरुपाधिक और निरविकार है। उसमें जीवभाव का आरोप केवल अज्ञान से होता है—“अध्यारोप” के रूप में। जब शिष्य इस रहस्य को समझ लेता है कि जीवभाव उसकी वास्तविक प्रकृति नहीं, बल्कि एक आभास है, तभी मोक्ष की ओर उसका मार्ग खुलता है। मोक्ष किसी नई वस्तु का प्राप्त होना नहीं, बल्कि उस मिथ्या उपाधि का हट जाना है, जिसने आत्मा को संकुचित कर जीव के रूप में प्रकट किया था। ज्ञान से वह उपाधि दूर हो जाती है, और आत्मा अपने स्वप्रकाश स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। इसी को अद्वैत वेदान्त में जीव-त्व के नाश और आत्म-वस्तु के उद्भासन का नाम दिया गया है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!