"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 195वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मुक्ति कैसे होगी ?
"शिष्य उवाच"
अतोऽस्य जीवभावोऽपि नित्यो भवति संसृतिः । न निवर्तेत तन्मोक्षः कथं मे श्रीगुरो वद ॥ १९५॥
अर्थ:-इसलिये इस आत्मा का जीवभाव भी नित्य है और ऐसा होने से इसका जन्म-मरण रूप संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं हो सकता; तो फिर, हे श्रीगुरुदेव ! इसका मोक्ष कैसे होगा, सो कहिये ?
इस श्लोक में शिष्य का एक अत्यन्त सूक्ष्म और गम्भीर प्रश्न प्रकट होता है। पूर्ववर्ती श्लोकों में यह बताया गया कि जीवभाव उपाधि-वश उत्पन्न हुआ है और क्योंकि उपाधि अनादि है, इसलिए जीवभाव भी अनादि प्रतीत होता है। इस विचार को सुनकर शिष्य के मन में स्वाभाविक रूप से यह शंका उत्पन्न होती है कि यदि जीवभाव अनादि है, उपाधि का आरम्भ नहीं है, और जब तक उपाधि है तब तक जीवभाव भी बना रहेगा—तो फिर जन्म-मरण का चक्र कैसे समाप्त होगा? यदि संसार का कारण जीवभाव है और वह नाश न होने वाला है, तो मोक्ष की सम्भावना ही कहाँ रही? इसी उलझन को व्यक्त करते हुए शिष्य पूछता है: “तो हे गुरुदेव! मोक्ष कैसे सम्भव होगा? कृपया बताइये।”
यह शंका अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अद्वैत वेदान्त की मूल शिक्षाओं को समझने की दिशा में निर्णायक मोड़ प्रदान करती है। वैदिक परम्परा में यह नियम है कि जब तक साधक की शंका पूरी तरह समाधान न पाए, तब तक वेदान्त का तत्वज्ञान न हृदय में बैठता है और न ही उसका फल प्रकट होता है। यहाँ शिष्य की शंका ‘जीवभाव की अनादिता’ को लेकर है। वह सोचता है कि जो वस्तु अनादि है, वह अनाश भी होगी, और यदि जीवभाव का नाश ही नहीं हो सकता तो मुक्ति कैसे होगी? परन्तु उसका यह निष्कर्ष भ्रमजन्य है, जिसे गुरु अगले श्लोकों में स्पष्ट करेंगे।
जीवभाव को अनादि कहा जाता है, परन्तु अनन्त नहीं कहा जाता। यह बहुत गम्भीर अंतर है। ‘अनादि’ का अर्थ है—जिसका कोई आरम्भ नहीं जाना जाता; ‘अनन्त’ का अर्थ है—जिसका अन्त भी न हो। उपाधि और उससे उत्पन्न जीवभाव ‘अनादि’ तो हैं, परन्तु ‘अनन्त’ नहीं हैं। क्योंकि उनका अस्तित्व केवल अविद्या पर आधारित है। अविद्या का स्वयं का कोई वास्तविक सत्ता नहीं होती; वह केवल ‘अभाव की भ्रांति’ है। जैसे रस्सी में साँप का ज्ञान अनादि प्रतीत हो सकता है—क्योंकि कब से भ्रांति चली आ रही थी यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता—परन्तु जैसे ही प्रकाश आता है, वैसे ही वह भ्रांति तत्काल नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार जीवभाव का अनादित्व इस बात का प्रमाण नहीं कि वह शाश्वत और अविनाशी है; वह केवल अविद्या के कारण दीर्घकालिक प्रतीत होता है, किन्तु ज्ञान के उदय से उसी क्षण समाप्त हो जाता है।
शिष्य यहां ‘अनादि’ और ‘अनन्त’ के बीच का यह अंतर नहीं समझ पा रहा है, इसलिए उसे लगता है कि जीवभाव कभी समाप्त नहीं होगा। परन्तु गुरु यह स्पष्ट करेंगे कि जीवभाव एक ‘आभासिक सत्ता’—व्यवहारिक अस्तित्व—रखता है, न कि परमार्थिक। परमार्थतः केवल आत्मा ही है—नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त। जीवभाव आत्मा का धर्म नहीं है, केवल उपाधि का है। उपाधि विद्या से नष्ट नहीं होती, अविद्या के नष्ट होने से उपाधि का प्रभाव समाप्त हो जाता है। इसलिए मोक्ष ‘जीवभाव का नाश’ नहीं, बल्कि ‘जीवभाव की कल्पितता का ज्ञान द्वारा परित्याग’ है। मोक्ष का अर्थ है—जीवभाव का समाप्त होना नहीं, अपितु यह जानना कि कभी वास्तविक रूप में जीवभाव था ही नहीं।
इस श्लोक में शिष्य का यह प्रश्न इसलिये भी उठता है कि वह अभी आत्मा और उपाधि के सम्बन्ध को अशुद्ध दृष्टि से देख रहा है—उसे लगता है कि उपाधि और आत्मा के बीच वास्तविक सम्बन्ध है। गुरु बताएंगे कि यह सम्बन्ध केवल ‘अध्यास’ है। जब मिथ्या संबंध ज्ञान से हट जाता है, तब आत्मा के नित्य-मुक्त स्वरूप की अनुभूति हो जाती है।
अतः यह श्लोक साधक की उस जिज्ञासा का प्रतिनिधित्व करता है जो आध्यात्मिक मार्ग में अनिवार्य है—यदि संसार और जीवभाव अनादि हैं, तो मुक्ति कैसे? इस प्रश्न का समाधान ही आगे के श्लोकों में अद्वैत का महान रहस्य प्रकट करेगा—ज्ञान-प्रकाश में उपाधि-जन्य जीवभाव का निरसन। यही मोक्ष है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!