"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 196वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आत्मज्ञान ही मुक्ति का उपाय है।
"श्रीगुरुरुवाच"
सम्यक्पृष्टं त्वया विद्वन्सावधानेन तच्छृणु ।
प्रामाणिकी न भवति भ्रान्त्या मोहितकल्पना ॥ १९६ ॥
अर्थ:-गुरु- हे वत्स ! तू बड़ा बुद्धिमान् है, तूने बहुत ठीक बात पूछी है। अच्छा, अब सावधान होकर सुन। देख, मुग्ध पुरुषों की भ्रमवश की हुई कल्पना माननीय नहीं हुआ करती।
हे प्रिय वत्स, इन श्लोकों में गुरु शिष्य के अत्यन्त सूक्ष्म और महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर देते हुए अद्वैत वेदान्त की मूलभूत शिक्षा को अत्यन्त करुणा और स्पष्टता के साथ प्रकट करते हैं। शिष्य ने इससे पहले जीवभाव, उपाधि, अनादि अविद्या और मोक्ष की सम्भावना को लेकर दार्शनिक गुत्थियां सामने रखीं, जो वास्तव में विवेकचूड़ामणि के सबसे गूढ़ प्रसंगों में से एक है। शिष्य का प्रश्न यही था कि यदि जीवभाव अनादि है और उपाधि का सम्बन्ध भी अनादि है, तो फिर मोक्ष कैसे सम्भव है? इस गहन शंका का समाधान करने के लिए गुरु पहले शिष्य की प्रशंसा करते हैं—क्योंकि वेदान्त में उचित प्रश्न करना ही आध्यात्मिक प्रगति का प्रथम संकेत माना गया है। गुरु कहता है, “तुमने सम्यक्—सही, उचित और गम्भीर—प्रश्न किया है,” और यह बताता है कि ऐसे प्रश्न वही पूछ सकता है जिसके भीतर सच्चे ज्ञान के प्रति अनन्य जिज्ञासा हो।
इसके बाद गुरु शिष्य को ‘आवधान’ अर्थात् पूर्ण ध्यानपूर्वक सुनने की प्रेरणा देता है, क्योंकि आगे जो बताया जाएगा वह अद्वैत की सम्पूर्ण प्रणाली को समझने की कुंजी है। गुरु कहते हैं कि जो भ्रम से उत्पन्न कल्पना है, वह प्रामाणिक नहीं हो सकती। अर्थात् अविद्या से आवृत्त मन जो भी कल्पना करता है—चाहे वह जीवभाव हो, कर्तृत्व हो, भोकर्तृत्व हो, देहाभिमान हो, या संसार का सत्यत्व—वह किसी भी प्रकार का प्रमाण उत्पन्न करने योग्य नहीं है। भ्रम से उत्पन्न ज्ञान सत्य का प्रतिपादन नहीं करता; वह केवल मिथ्या आभास है। ठीक जैसे अंधकार में रस्सी को साँप मान लेना। उस क्षण व्यक्ति का डर, उसकी प्रतिक्रिया, उसका अनुभव—सब वास्तविक प्रतीत होते हैं, किन्तु जो आधार है वह असत्य है। इसी प्रकार जीवभाव वास्तविक प्रतीत होता है, कर्म-फल का अनुभव भी वास्तविक लगता है, जन्म-मरण भी प्रत्यक्ष महसूस होते हैं, परन्तु वे सब भ्रम का परिणाम हैं, न कि आत्मा की वास्तविक स्थिति।
गुरु का संकेत है कि ‘अनादि’ का अर्थ ‘अनन्त’ नहीं होता। अविद्या का अनादित्व केवल एक उपाधि-संबंधी कथन है—यह बताने के लिए कि उसका कोई पहला कारण नहीं है, परन्तु यह यह नहीं कहता कि उसका अन्त भी नहीं होगा। अविद्या अनादि है परन्तु नित्य नहीं है। उसका नाश ज्ञान से सम्भव है, ठीक वैसे ही जैसे अंधकार का आरम्भ न पता हो, परन्तु दीपक जलते ही वह तत्काल मिट जाता है। अतः गुरु कहता है कि शिष्य जिस जीवभाव या संसारभाव को नित्य मानकर प्रश्न उठा रहा है, वह भ्रमजनित है; और चूँकि भ्रमजनित वस्तु प्रामाणिक नहीं है, इसलिए उसका नाश भी सम्भव है।
गुरु का कथन शिष्य को यह समझाना चाहता है कि मोक्ष किसी वास्तविक बन्धन से मुक्ति नहीं, बल्कि केवल भ्रम-निवृत्ति है। आत्मा कभी बँधी नहीं, इसलिए उसे मुक्त भी नहीं होना पड़ता। केवल कल्पित बन्धन मिटना है। जैसे स्वप्न में बँधना भी स्वप्न ही है और मुक्त होना भी स्वप्न ही है; जागरण होते ही दोनों का अंत हो जाता है। इसी प्रकार आत्मज्ञान होने पर जीवभाव, संसारभाव, कर्तापन—सब विलीन हो जाते हैं और आत्मा का स्वस्वरूप, जो सदा मुक्त है, प्रकट हो जाता है।
इस प्रकार इन श्लोकों में गुरु अविद्या की मिथ्यात्व, भ्रम की अप्रामाणिकता और ज्ञान के माध्यम से मोक्ष की सम्भावना को अत्यन्त सरल किंतु दार्शनिक रूप में स्पष्ट करते हैं।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!