"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 197वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आत्मज्ञान ही मुक्ति का उपाय है।
"श्रीगुरुरुवाच"
भ्रान्तिं विना त्वसङ्गस्य निष्क्रियस्य निराकृतेः ।
न घटेतार्थसम्बन्धो नभसो नीलतादिवत् ॥ १९७॥
अर्थ:-जो असंग, निष्क्रिय और निराकार है, उस आत्मा का पदार्थां से, नीलता आदि से आकाश के समान भ्रम के अतिरिक्त और किसी प्रकार सम्बन्ध नहीं हो सकता।
विवेकचूड़ामणि का यह श्लोक अत्यंत गहन और सूक्ष्म तत्त्व को प्रकट करता है। शंकराचार्य यहाँ यह समझाते हैं कि आत्मा का संसार से जो भी सम्बन्ध प्रतीत होता है, वह केवल और केवल अज्ञानजनित भ्रम है; वास्तविकता में आत्मा का संसार से कोई सम्बन्ध नहीं है। श्लोक में कहा गया है— “भ्रान्तिं विना त्वसङ्गस्य निष्क्रियस्य निराकृतेः न घटेतार्थसम्बन्धो नभसो नीलतादिवत्” — जिसका अर्थ है कि जो आत्मा असंग है, निष्क्रिय है, निराकार है, उसका किसी भी पदार्थ से सम्बन्ध केवल भ्रम के कारण ही प्रतीत होता है, जैसे कि आकाश में नीलता का आभास होता है, जबकि आकाश वास्तव में नील नहीं है।
आत्मा का स्वभाव ‘असंगत्व’ है— अर्थात् वह किसी भी वस्तु, शरीर, मन, इन्द्रिय या जगत से कभी नहीं जुड़ता। जुड़ने का अर्थ है किसी प्रकार का स्पर्श या संश्लेषण; पर आत्मा सर्वदा शुद्ध, स्वतंत्र और सब से परे है। वह न मन के गुणों से रंगता है, न बुद्धि के परिवर्तन से प्रभावित होता है, न शरीर के सुख-दुःख उससे स्पर्श करते हैं। जैसे सूर्य अपनी ज्योति से सबको प्रकाशित करता है, पर किसी वस्तु का मलिनता उसे छू नहीं सकती, वैसे ही आत्मा केवल साक्षी रूप से सबको प्रकाशित करता हुआ भी किसी से नहीं जुड़ता।
श्लोक में आत्मा को ‘निष्क्रिय’ कहा गया है। निष्क्रिय का अर्थ है— वह कोई भी क्रिया नहीं करता। क्रिया का होना परिवर्तन का संकेत है, और आत्मा तो कूटस्थ, निर्विकार है। शरीर चलता है, इन्द्रियाँ कार्य करती हैं, मन सोचता है, बुद्धि निर्णय लेती है; पर इन सबकी साक्षी जो चैतन्य है, वह स्वयं कुछ नहीं करता। फिर भी अज्ञानवश जीव यह मान लेता है कि “मैं करता हूँ”, “मैं भोगता हूँ”, “मुझ पर यह सुख-दुख आ रहे हैं”— और यही भ्रम बंधन का कारण बनता है।
आत्मा को ‘निराकृति’ भी कहा गया है— अर्थात् उसका कोई आकार, रूप, रंग या गुण नहीं है। आकार होने पर वह सीमित हो जाता। रूप होने पर वह परिवर्तनशील हो जाता। पर आत्मा अनन्त, अविकारी, निराकार चैतन्य है। जब निराकार तत्व को किसी भी पदार्थ से जोड़कर हम देखते हैं, तब वह सम्बन्ध केवल कल्पना का होता है, सत्य का नहीं।
इसी बात को स्पष्ट करने के लिए आचार्य आकाश का उदाहरण देते हैं। आकाश में नीलता दिखती है, पर नीलता आकाश में नहीं होती। नीलता केवल दृष्टि का भ्रम है; कुछ विशेष परिस्थितियों में प्रकाश के विकिरण से ऐसा आभास होता है। इसी प्रकार आत्मा— जो सर्वदा शुद्ध, मुक्त और निराकार है— उसमें जीवभाव, कर्तापन, भोक्तापन या दुःख-सुख का अनुभव प्रतीत होता है, पर वास्तव में वह सब मन-बुद्धि की उपाधियों का आरोप है, आत्मा का नहीं।
इस प्रकार श्लोक का सार यह है कि आत्मा और संसार का सम्बन्ध वास्तविक नहीं है। यह सम्बन्ध केवल अज्ञान, उपाधि और भ्रांति से प्रकट होता है। जब यह भ्रांति मिट जाती है, तब ज्ञानी को स्पष्ट दिखता है कि आत्मा हमेशा से मुक्त था, मुक्त है, और मुक्त ही रहेगा। जैसे आकाश की नीलता का भ्रांति-निवारण होते ही आकाश नील नहीं, बल्कि शुद्ध और रंगहीन प्रतीत होता है, वैसे ही ज्ञान होने पर आत्मा अपने शुद्ध, असंग, निराकार स्वरूप में प्रकाशित हो जाता है। यही मोक्ष का सत्य स्वरूप है— अज्ञानजनित सम्बन्ध का लय और आत्मस्वरूप की प्रत्यक्ष अनुभूति।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!