"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 198वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आत्मज्ञान ही मुक्ति का उपाय है।
"श्रीगुरुरुवाच"
स्वस्य द्रष्टुर्निर्गुणस्याक्रियस्य प्रत्यग्बोधानन्दरूपस्य बुद्धेः ।
भ्रान्त्या प्राप्तो जीवभावो न सत्यो मोहापाये नास्त्यवस्तुस्वभावात् ॥ १९८ ॥
अर्थ:-साक्षी, निर्गुण, अक्रिय और प्रत्यग्ज्ञानानन्दस्वरूप उस आत्मा में बुद्धि के भ्रम से ही जीव-भाव की प्राप्ति हुई है, वह वास्तविक नहीं है; क्योंकि वह अवस्तुरूप होने से, मोह दूर हो जाने पर स्वभाव से ही नहीं रहता।
यह महत्त्वपूर्ण श्लोक आत्मा और जीवभाव के सम्बन्ध को अत्यन्त सूक्ष्मता से स्पष्ट करता है। अद्वैत वेदान्त में जीवभाव—‘मैं सीमित हूँ, शरीर-मन का कर्ता-भोक्ता हूँ’—यह संकुचित पहचान किसी वास्तविक सत्ता पर नहीं टिकती, बल्कि केवल अविद्या या भ्रान्ति पर आधारित होती है। शंकराचार्य यहाँ बताते हैं कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप साक्षी, निर्गुण, अक्रिय और प्रत्यग्बोधानन्दरूप है; अर्थात् वह न किसी गुण से युक्त है, न किसी कर्म से बँधा है, न बाह्य वस्तुओं से प्रभावित होता है और न किसी परिवर्तन का विषय है। वह केवल ‘द्रष्टा’—साक्षी—रूप में अपने प्रकाश से सब अनुभवों को प्रकाशित करता है, पर उनसे स्पर्शरहित रहता है।
इस साक्षीस्वरूप आत्मा पर जब बुद्धि का उपाधि-दोष पड़ता है, तब उसमें ‘मैं’ और ‘मेरा’ का विभ्रम उत्पन्न होता है। बुद्धि प्रकृति का एक विकार है—चंचल, परिवर्तनीय, और अशुद्धियों से युक्त। उसके साथ आत्मा का तादात्म्य हो जाने से ऐसा प्रतीत होता है कि अज्ञान, राग-द्वेष, कर्तापन, भोक्तापन और कर्मबंधन आत्मा के गुण हैं, जबकि वास्तव में ये सब केवल बुद्धि के धर्म हैं, आत्मा के नहीं। जिस प्रकार स्वच्छ क्रिस्टल के पास लाल पुष्प रख देने से क्रिस्टल लाल दिखाई देता है, किन्तु भीतर से वह अपरिवर्तित रहता है—उसी प्रकार आत्मा बुद्धि के गुणों को ‘अपनाया हुआ सा’ प्रतीत होता है, पर वास्तव में वह उनमें कभी सम्मिलित नहीं होता।
श्लोक आगे कहता है कि जीवभाव ‘न सत्यः’—वास्तविक नहीं है। यह अत्यधिक महत्वपूर्ण वाक्य है। वास्तविक वही होता है जो तीनों कालों में बना रहे, जो स्वयं से प्रकाशित हो, जो नाशरहित हो। जीवभाव अर्थात् ‘मैं देह-मन हूँ’—यह पहचान न तो शाश्वत है, न स्वप्रकाश है, न नाशरहित। यह केवल अविद्या से उत्पन्न होने वाली कल्पना है, ठीक उसी प्रकार जैसे स्वप्न में अपने आपको किसी और रूप में देखना। स्वप्न के पात्रों की वास्तविक सत्ता नहीं होती, केवल मन की विक्षिप्तता से वे दिखाई देते हैं। इसी प्रकार जीवभाव भी मन-बुद्धि के भ्रम से दीखता है, पर उसका कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है।
शंकराचार्य कहते हैं—जैसे ही मोह अर्थात् अविद्या दूर होती है, जीवभाव स्वतः नष्ट हो जाता है। इसका कारण यह है कि उसकी अपनी कोई वास्तविक सत्ता ही नहीं है—‘अवस्तुस्वभावात्’। जिस वस्तु का मूलस्वभाव ही ‘न होना’ है, वह केवल अज्ञान रहते हुए ही दिखाई दे सकती है; ज्ञान आने पर वह टिक नहीं सकती। अन्धकार का अस्तित्व केवल प्रकाश की अनुपस्थिति में ही दिखता है; दीपक जलते ही अन्धकार स्वतः मिट जाता है। उसी प्रकार आत्मस्वरूप के प्रत्यक्ष होते ही जीवभाव—जो अज्ञान से उत्पन्न था—स्वभावतः समाप्त हो जाता है।
अनुभव भी यही सिद्ध करता है। गहन समाधि या आत्मबोध के क्षणों में ‘मैं शरीर हूँ’, ‘मैं कर्ता हूँ’, ‘मैं सुखी-दुखी हूँ’—ये सभी भाव तिरोहित हो जाते हैं और केवल शांत, साक्षी, अक्रिय चैतन्य ही शेष रहता है। वही आत्मा है, वही परम सत्य। जीवभाव केवल उपाधियों से उत्पन्न छाया है; जैसे ही उपाधि का भ्रम मिटता है, आत्मा की अद्वैत सत्ता पूर्ण रूप में प्रकट हो जाती है। यही मोक्ष है—स्वरूप की पहचान, और उपाधियों से असंगता का अनुभव।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!