"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 202, 203 वां 204 श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आत्मज्ञान ही मुक्ति का उपाय है।
"श्रीगुरुरुवाच"
यद्बुद्ध्युपाधिसम्बन्धात्परिकल्पितमात्मनि ॥ २०२ ॥ जीवत्वं न ततोऽन्यत्तु स्वरूपेण विलक्षणम्।
सम्बन्धः स्वात्मनो बुद्ध्या मिथ्याज्ञानपुरःसरः ॥ २०३ ॥
विनिवृत्तिर्भवेत्तस्य सम्यग्ज्ञानेन नान्यथा । ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानं सम्यग्ज्ञानं श्रुतेर्मतम् ॥ २०४ ॥
अर्थ:-अतः जिस जीवत्व की बुद्धिरूप उपाधि के सम्बन्ध से ही आत्मा में कल्पना हुई है, वह स्वरूप से उस (आत्मा) से पृथक् नहीं हो सकता। बुद्धि के साथ यह आत्मा का सम्बन्ध मिथ्या ज्ञानके ही कारण है। इसकी निवृत्ति ठीक-ठीक ज्ञान हो जाने से ही हो सकती है और किसी प्रकार नहीं; तथा ब्रह्म और आत्मा की एकता का ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है-ऐसा श्रुति का सिद्धान्त है [ अतः ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान हो जाने से जीव भाव की निवृत्ति हो जाती है ]।
विवेकचूडामणि के इन अत्यंत गूढ़ और गहन श्लोकों में आदि शंकराचार्य जीवभाव की Mithyātā (अवास्तविकता), उसकी उत्पत्ति का कारण, और उसकी निवृत्ति का उपयुक्त साधन स्पष्ट करते हैं। इन तीन श्लोकों (२०२–२०४) में अद्वैत वेदान्त का सार सन्निहित है—अविद्या से उत्पन्न जीवभाव और विद्या से उसका पूर्ण लोप। इन श्लोकों का तात्पर्य यह है कि आत्मा में जीवभाव का आरोप मात्र बुद्धि-उपाधि के सम्बन्ध से हुआ है, और यह सम्बन्ध भी वास्तविक नहीं, बल्कि अविद्या-जनित कल्पना है। जब सम्यक् ज्ञान—ब्रह्म-आत्मैक्य का प्रत्यक्ष बोध—उदय होता है, तब यह मिथ्या कल्पना स्वयं ही नष्ट हो जाती है।
शंकराचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार रज्जु पर सर्प का आरोप भ्रम से होता है, परंतु सर्प स्वयं रज्जु से पृथक् कोई वास्तविक सत्ता नहीं रखता, उसी प्रकार जीवत्व भी आत्मा से पृथक् कोई स्वतंत्र सत्य नहीं है। जीवभाव आत्मा में बुद्धि (अन्तःकरण) के सम्बन्ध से प्रकट होता है, परंतु यह सम्बन्ध आत्मा की वास्तविकता से नहीं, केवल उपाधि की सीमाओं से है। जब मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त—ये चारों मिलकर अन्तःकरण बनाते हैं—तो इस बुद्धि पर चैतन्य का प्रतिबिंब पड़ता है, जिससे “अहं” की उत्पत्ति होती है। यही “अहं” जब देह, इन्द्रिय, प्राण और मन से तादात्म्य करता है, तब “मैं जीव हूँ”—यह भ्रांति उत्पन्न होती है। इस प्रकार जीवत्व आत्मा में कोई वास्तविक धर्म नहीं, अपितु उपाधि का ही धर्म है। यह उपाधि-धर्म ऐसा प्रतीत होता है मानो आत्मा का स्वभाव ही हो, किन्तु शंकराचार्य संकेत करते हैं कि यह केवल “परिकल्पितम्”—कल्पना मात्र है।
आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और सच्चिदानन्दस्वरूप है। उसमें सीमितता, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, सुख-दुःख, जन्म-मरण आदि का कोई स्थान नहीं। परंतु बुद्धि सम्पर्क से यह आत्मा सीमित और व्यक्त-सा प्रतीत होता है। यही कारण है कि श्लोक २०२ में उपाधि-सम्बन्ध को कल्पना कहा गया है। यहाँ “यद् बुद्ध्युपाधिसम्बन्धात् परिकल्पितम् आत्मनि जीवत्वम्”—अर्थात् बुद्धि-उपाधि के सम्बन्ध से आत्मा में जो जीवत्व का आरोप हुआ है, वह वास्तविक नहीं। शंकराचार्य यहाँ यह भी कहते हैं कि जीवत्व आत्मा की दृष्टि से पृथक् नहीं है—क्योंकि अलग सत्य तभी होता जब वह स्वयं स्वतंत्र, सत्यमूलक सत्ता वाला होता। परंतु जीवभाव किसी भी प्रकार आत्मा से पृथक् वस्तु नहीं—यह केवल आत्मा पर अविद्या का आरोप है। जैसे आकाश पर बादल का कोई सम्बन्ध नहीं, केवल उपाधि-जनित लगता है कि आकाश धुँधला हुआ है, वैसे ही आत्मा में जीवभाव उपाधि-जनित प्रतीति है।
अगले श्लोक में कहा गया कि यह सम्बन्ध मिथ्या ज्ञान के कारण है—“सम्बन्धः स्वात्मनो बुद्ध्या मिथ्या ज्ञानपुरःसरः।” आत्मा और बुद्धि का सम्बन्ध केवल अज्ञान की देन है। जब तक यह अविद्या है, तब तक आत्मा खुद को बुद्धि के साथ एक मान लेता है। “मैं जानता हूँ”, “मैं करता हूँ”, “मैं बोलता हूँ”, “मैं चलता हूँ”—ये सभी वाक्य आत्मा नहीं, बल्कि बुद्धि और देह के कार्य हैं। परंतु आत्मा अपने प्रतिबिम्ब के कारण इन्हें स्वयं का कार्य समझ बैठता है। यही कारण है कि जीव अपने को सीमित, दुखी, कर्ता, भोक्ता और बंधन में मानता है। परंतु यह अवस्था केवल “मिथ्या ज्ञान”—अज्ञान—से उत्पन्न है।
शंकराचार्य आगे कहते हैं कि इस मिथ्या सम्बन्ध की निवृत्ति केवल “सम्यक् ज्ञान” से हो सकती है—“विनिवृत्तिर्भवेत् तस्य सम्यग्ज्ञानैन नान्यथा।” यह अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। वे स्पष्ट बता देते हैं कि जीवभाव को न कोई कर्म मिटा सकता है, न कोई उपासना, न कोई तप, न कोई योग-साधना—जीवभाव का नाश केवल ज्ञान से संभव है। कारण यह है कि जीवभाव अविद्या-जनित है, और अविद्या का नाश केवल विद्या से होता है। जिस प्रकार अन्धकार का नाश केवल प्रकाश से होता है, उसी प्रकार अविद्या का नाश केवल आत्म-ज्ञान से होगा। अज्ञान से उत्पन्न भ्रांति कर्म से नहीं मिटती। यदि रज्जु-सर्प का भ्रम हो, तो चाहे कितनी दौड़-भाग करें या मंत्र पढ़ें—यदि सही ज्ञान न हो कि वस्तु रज्जु है, तब तक सर्प दिखाई देता रहेगा। उसी प्रकार जब तक यह ज्ञान नहीं होता कि “मैं ब्रह्म हूँ”, तब तक “मैं जीव हूँ” की भ्रांति मिट नहीं सकती।
सम्यक् ज्ञान क्या है? शंकराचार्य स्वयं बताते हैं—“ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानं सम्यग्ज्ञानं श्रुतेर्मतम्।” अर्थात् उपनिषद् का स्पष्ट सिद्धांत है कि ब्रह्म और आत्मा की एकता का प्रत्यक्ष ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है। यह केवल बौद्धिक विचार नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभवात्मक बोध है—जहाँ ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय त्रिपुटी लुप्त हो जाती है। जब शिष्य को गुरु उपदेश देता है—“तत्त्वमसि”—तू ही वह ब्रह्म है—तब यह वाक्य आत्मा में स्थित अविद्या को काटने का सामर्थ्य रखता है। यह महावाक्य, गुरु-उपदेश, श्रवण-मनन-निदिध्यासन के द्वारा आत्मा अपनी वास्तविकता को पहचानने लगता है। तब वह समझता है कि “मैं कभी जीव था ही नहीं; जीवभाव केवल बुद्धि के कारण उत्पन्न भ्रम था।” जैसे जागने पर स्वप्न स्वयं लुप्त हो जाता है, वैसे ही ब्रह्म-ज्ञान होने पर जीवभाव, संसार, बन्धन, कर्तापन, भोग और दुःख—all vanish instantly.
शंकराचार्य यह भी स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान होने पर जीवभाव की “निवृत्ति” होती है, न कि आत्मा में कोई नया गुण उत्पन्न होता है। आत्मा अपने आप में पूर्ण है, उसे कुछ प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं। बस जो आवरण था, वह हट जाता है। जैसे सूर्य बादलों के हटते ही प्रकट होता है, या जैसे दर्पण पर धूल हटते ही प्रतिबिम्ब स्पष्ट हो जाता है, वैसे ही आत्मा, जो सदा-सर्वदा मुक्त, नित्य, अव्यय, सच्चिदानन्द स्वरूप है—ज्ञान होने पर अपना स्वभाव प्रकट कर देता है।
इन श्लोकों से यह भी स्पष्ट होता है कि जीवभाव की अनादित्वता और सतत अनुभूति के बावजूद उसका नाश संभव है—क्योंकि वह मिथ्या है। मिथ्या वस्तु कितने भी समय तक क्यों न अनुभव हो, वास्तविक नहीं होती। स्वप्न भी अनादिकाल से प्रतीत नहीं होता, परंतु स्वप्न में रहते हुए ही वह वास्तविक लगता है। परंतु जागते ही स्वप्न का लोप हो जाता है। उसी प्रकार अविद्या-अनादि है, लेकिन नित्य नहीं; उसका नाश संभव है। अविद्या का नाश केवल ज्ञान से होता है, इसलिए शंकराचार्य बार-बार ज्ञान की महत्ता पर बल देते हैं।
समग्र रूप से यह शिक्षा हमें बताती है कि आत्मा सदा स्वतंत्र, अकलुष, असंग और अपरिवर्तनशील है। जीवभाव देह-बुद्धि का अज्ञान-जनित संयोग है। जब तक यह संयोग बना है, तब तक जीवन दुःखमय और बंधनयुक्त लगता है। परंतु जैसे ही ब्रह्म-आत्मैक्य का बोध होता है, तब जीवत्व, संसार, बन्धन का समस्त प्रपंच मिट जाता है और आत्मा अपने स्वरूप—सच्चिदानन्द, पूर्ण-अद्वैत-ब्रह्म—में विराजमान होता है।
अतः निष्कर्ष यही है कि जीवभाव का नाश केवल और केवल ब्रह्म-ज्ञान से होता है। और यह ज्ञान किसी अन्य साधन से प्राप्त नहीं होता—न कर्म से, न उपासना से, न योग से—केवल गुरु-उपदिष्ट महावाक्य के मनन-निदिध्यासन से प्राप्त होता है। यही अद्वैत वेदान्त का अंतिम और सर्वश्रेष्ठ निष्कर्ष है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!