"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 205वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आत्मज्ञान ही मुक्ति का उपाय है।
"श्रीगुरुरुवाच"
तदात्मानात्मनोः सम्यग्विवेकेनैव सिध्यति ।
ततो विवेकः कर्तव्यः प्रत्यगात्मासदात्मनोः ॥ २०५ ॥
अर्थ:-उस ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान की सिद्धि आत्मा और अनात्मा का भली प्रकार विवेक (पार्थक्य-ज्ञान) हो जाने से ही होती है। इसलिये प्रत्यगात्मा और मिथ्यात्मा का भली प्रकार विवेचन करना चाहिये।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक स्पष्ट रूप से बताता है कि ब्रह्म और आत्मा की एकता का ज्ञान किसी बाहरी साधन से नहीं, बल्कि आत्मा और अनात्मा के गहन विवेक से ही प्राप्त होता है। जब तक साधक अपने भीतर यह भेद नहीं कर पाता कि क्या वास्तविक है और क्या केवल उपाधियों के कारण प्रतीत होने वाला मिथ्या स्वरूप है, तब तक परमात्मा का साक्षात्कार संभव नहीं होता। ‘तदात्मानात्मनोः सम्यग्विवेकेनैव सिध्यति’—इस वाक्य का तात्पर्य है कि ब्रह्मज्ञान की सिद्धि केवल और केवल तभी होती है जब साधक निश्चयपूर्वक यह जान ले कि आत्मा सदा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, नित्य और निराकार है, जबकि शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ अनात्मा हैं—जन्मने वाले, बदलने वाले और विनाश को प्राप्त होने वाले।
जब साधक अपने अनुभव में यह देखना प्रारम्भ करता है कि शरीर केवल पंचमहाभूतों का एक अस्थायी संयोजन है, मन केवल विचारों का प्रवाह है, बुद्धि निर्णय का उपकरण है और अहंकार केवल ‘मैं करता हूँ’ की भ्रांति है—तब उसके लिए यह समझना सरल हो जाता है कि इन सबका वास्तविक ‘मैं’ से कोई सम्बन्ध नहीं है। यही विवेक का आरम्भ है। इसी विवेक से यह बोध दृढ़ होता है कि ‘मैं’ इन सबका साक्षी हूँ—परन्तु इनमें से कुछ भी ‘मैं’ नहीं हूँ। यही प्रत्यगात्मा का साक्षात्कार है—जो बाहर की ओर नहीं, भीतर की ओर जाग्रत रहने से प्रकट होता है।
शंकराचार्य बताते हैं कि आत्मा स्वभावत: नित्य और व्यापक है; वह किसी भी अवस्था में बदला नहीं जाता। परन्तु अनात्मा, चाहे वह शरीर हो या मन का संसार—सदा परिवर्तनशील है, क्षण-भंगुर है। इसलिये इन दोनों का संयोग केवल अज्ञान के कारण ही प्रतीत होता है। जैसे नीले आकाश का अनुभव केवल नेत्र-दोष से होता है, वैसे ही ‘मैं शरीर हूँ’ की भावना केवल अविद्या की उपज है। जब साधक विवेक करता है, सतत आत्मानात्म-विचार करता है, तब यह भ्रम मिटने लगता है और वास्तविकता का स्वरूप स्वतः प्रकट होने लगता है।
श्लोक का दूसरा भाग—"ततो विवेकः कर्तव्यः प्रत्यगात्मासदात्मनोः"—यह आदेश है, उपदेश है, और साधक के लिए मार्गदर्शन भी। शंकराचार्य यहाँ कहते हैं कि आत्मा (प्रत्यगात्मा) और असत् आत्मा (मिथ्या—शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदि) का भेद समझना केवल दार्शनिक चर्चा नहीं है, बल्कि यह साधना का अनिवार्य अंग है। जब इसका अभ्यास निरन्तर होता है, तब संसार के प्रति आसक्ति ढीली पड़ जाती है, दुखों की तीव्रता घटने लगती है और भीतर एक स्थायी शान्ति प्रकट होने लगती है।
जब यह विवेक पूर्ण रूप से स्थापित हो जाता है—यानी जब साधक जान लेता है कि न मैं शरीर हूँ, न मन हूँ, न बुद्धि हूँ और न ही अहंकार—तब उस पर आत्मा की सत्यता प्रकट हो जाती है। तब वह समझता है कि वास्तविकता केवल ब्रह्म है, और मैं उसी का स्वरूप हूँ। यही ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान की सिद्धि है। और इसी सिद्धि से समस्त बंधन मिट जाते हैं, क्योंकि बंधन कभी भी आत्मा का था ही नहीं—वह केवल अनात्मा से तादात्म्य का परिणाम था।
इस प्रकार यह श्लोक हमें स्पष्ट रूप से दिखाता है कि मुक्ति का मार्ग किसी बाहरी साधन से नहीं, बल्कि भीतर के विवेक से प्रशस्त होता है। आत्मा और अनात्मा का विवेचन ही वह कुंजी है, जो साधक को अज्ञान के द्वार से निकालकर ब्रह्मज्ञान की स्वतंत्रता में प्रवेश करवाती है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!