"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 206वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आत्मज्ञान ही मुक्ति का उपाय है।
"श्रीगुरुरुवाच"
जलं पङ्कवदत्यन्तं पङ्कापाये जलं स्फुटम् ।
यथा भाति तथात्मापि दोषाभावे स्फुटप्रभः ॥ २०६ ॥
अर्थ:-अत्यन्त गँदला जल भी जिस प्रकार कीचड़ के बैठ जाने पर स्वच्छ जल मात्र रह जाता है उसी प्रकार दोष से रहित हो जाने पर आत्मा भी स्पष्टतया प्रकाशित होने लगता है।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक आत्मा की स्वाभाविक निर्मलता को अत्यन्त सरल और प्रभावशाली उपमा द्वारा समझाता है। यहाँ आत्मा की तुलना उस जल से की गई है जो कीचड़ मिल जाने के कारण पूर्णतः गंदला और अशुद्ध दिखाई देता है। जल का वास्तविक स्वरूप तो सदैव स्वच्छ, निर्मल और पारदर्शी ही रहता है, परन्तु जब उसमें पंक मिश्रित हो जाता है, तब उसका स्वच्छ स्वरूप हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है। ठीक इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव भी शुद्ध, निर्मल, प्रकाशस्वरूप और चेतन है, किन्तु अविद्या, अहंकार, राग-द्वेष, कामना, क्रोध, मानसिक विकार और देहाभिमान के कारण वह ढका हुआ प्रतीत होता है। आत्मा में कोई दोष नहीं होता, दोष अंतःकरण में होता है; परन्तु माया के कारण मनुष्य आत्मा और उसके आवरण—बुद्धि, मन और अहंकार—को एक मान लेता है और इस प्रकार आत्मा को भी वही दोषयुक्त समझ लेता है।
श्लोक कहता है कि जैसे ही जल में मिला हुआ कीचड़ नीचे बैठ जाता है और जल अपनी मूल अवस्था में वापस दिखाई देने लगता है, वैसे ही जब मन के दोष शांत हो जाते हैं, जब मन की अशुद्धियाँ हट जाती हैं, जब अंतःकरण निर्मल हो जाता है, तब आत्मा का यथार्थ स्वरूप स्वयं प्रकट हो जाता है। आत्मा को प्रकट करने के लिए किसी बाहरी साधन की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि आत्मा तो सदा प्रकाशमान है। आवश्यकता केवल यह है कि मन रूपी पंक बैठ जाए, उसके विक्षेप और मल नष्ट हो जाएँ, और वह शांत, स्थिर और शुद्ध हो जाए। जैसे कीचड़ गंदे जल को गंदा तो कर देता है, परंतु जल को नष्ट नहीं करता, वैसे ही मन के विकार आत्मा को कभी दूषित नहीं करते; वे केवल उसकी अभिव्यक्ति को बाधित करते हैं।
आत्मा का स्वरूप प्रकाश है—वह स्वयं प्रकाशित है, वह सबको प्रकाश देता है, परंतु स्वयं किसी और चीज़ से प्रकाशित नहीं होता। जब मन में राग-द्वेष न्यून हो जाते हैं, मोह और वासनाएँ शांत हो जाती हैं, और अहंकार क्षीण हो जाता है, तब आत्मा का यह प्रकाश स्पष्ट रूप से अनुभव होने लगता है। यह अनुभव कोई नया ज्ञान प्राप्त करना नहीं है, बल्कि अपने सत्य स्वरूप की स्मृति है—वह स्वरूप जो हमेशा से विद्यमान है, परंतु मन के अशुद्ध होने से ढका हुआ था। शास्त्र कहते हैं कि आत्मा वस्तुतः कभी अप्रकट नहीं होती, वह सदा प्रकट ही है; अप्रकट तो केवल हमारी दृष्टि है, जो मन के विक्षेपों के कारण सत्य का अनुभव नहीं कर पाती।
इस श्लोक का गूढ़ संदेश यह है कि साधना का उद्देश्य आत्मा को उत्पन्न करना, बनाना या कहीं खोजकर लाना नहीं है। साधना का उद्देश्य केवल मन को इतना निर्मल करना है कि आत्मा का तेज स्वयं प्रकट होने लगे। इसीलिए शास्त्र ‘चित्तशुद्धि’ को प्राथमिक साधना मानते हैं। जब मन निर्मल होता है, तब विवेक स्पष्ट होता है; जब विवेक स्पष्ट होता है, तब आत्मस्वरूप का ज्ञान सहज हो जाता है। एक साधक को समझना चाहिए कि आत्मा का अनुभव किसी क्रिया का परिणाम नहीं, बल्कि मन के शुद्ध होने का स्वाभाविक फल है।
इस उपमा द्वारा शंकराचार्य यह भी समझाते हैं कि आत्मज्ञान किसी बाहरी प्रमाण पर निर्भर नहीं करता। जैसे स्वच्छ जल स्वयं ही प्रकट हो जाता है, किसी को उसे दिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वैसे ही आत्मा का प्रकाश भीतर ही भीतर इतना स्पष्ट होता है कि साधक को किसी तर्क या कल्पना का सहारा नहीं लेना पड़ता। दोषों की निवृत्ति ही ज्ञान का द्वार खोलती है। अतः इस श्लोक का सार यही है कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए केवल एक ही उपाय है—मन के दोष, वासनाएँ और अविद्या रूपी कीचड़ को शांत करना। जब यह पंक हट जाता है, तब आत्मा का दिव्य स्वरूप अपने आप प्रकाशमान हो उठता है, और साधक अपनी अनंत, शुद्ध और मुक्त सत्ता का साक्षात् अनुभव कर लेता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!