"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 209वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
"आनन्दमय कोश"
आनन्दप्रतिविम्बचुम्बिततनुर्वृत्तिस्तमोजृम्भिता स्यादानन्दमयः प्रियादिगुणकः स्वेष्टार्थलाभोदयः । पुण्यस्यानुभवे विभाति कृतिनामानन्दरूपः स्वयं भूत्वा नन्दति यत्र साधु तनुभृन्मात्रः प्रयत्नं विना ॥ २०९ ॥
अर्थ:-आनन्दस्वरूप आत्मा के प्रतिविम्ब से चुम्बित तथा तमोगुण से प्रकट हुई वृत्ति आनन्दमय कोश है। वह प्रिय आदि (प्रिय, मोद और प्रमोद-इन तीन) गुणों से युक्त है और अपने अभीष्ट पदार्थ के प्राप्त होने पर प्रकट होती है। पुण्य-कर्म के परिपाक होने पर उसके फलरूप सुख का अनुभव करते समय भाग्यवान् पुरुषों को उस आनन्दमय कोश का स्वयं ही भान होता है, जिससे सम्पूर्ण देहधारी जीव बिना प्रयत्न के ही अति आनन्दित होते हैं।
विवेकचूडामणि के इस श्लोक में शंकराचार्य जी ‘आनन्दमय कोश’ का अत्यन्त सूक्ष्म और गम्भीर विवेचन करते हैं। वे बताते हैं कि जीव में दिखाई देने वाला जो सुख का अनुभव है, वह वास्तव में आत्मा की नहीं, बल्कि आत्मा के प्रतिविम्ब से उत्पन्न एक विशेष प्रकार की वृत्ति है। आत्मा स्वयं तो नित्य, शुद्ध, बुद्ध और आनन्दस्वरूप है—परन्तु वही आनन्द जब सूक्ष्म उपाधियों से प्रतिबिम्बित होकर मन-बुद्धि में प्रतिबिम्बित होता है, तब एक विशेष सुखानुभूति उत्पन्न होती है। इसी प्रतिबिम्बित आनन्द के आधार पर ‘आनन्दमय कोश’ की कल्पना की गई है। शंकराचार्य कहते हैं कि यह कोश आत्मा की प्रतिच्छाया से ‘चुम्बित’ अर्थात स्पर्शित है। जैसे चन्द्रमा स्वयं उज्ज्वल है, परन्तु उसका प्रकाश पानी में प्रतिबिम्बित होकर केवल चमक मात्र दिखाता है, उसी प्रकार आत्मा का शुद्ध आनन्द भी इस कोश में प्रतिबिम्बित होता है। यह मूल आत्मानन्द नहीं, बल्कि प्रतिबिम्बानन्द है।
यह आनन्दमय कोश तमोगुण से उत्पन्न एक विशेष प्रकार की वृत्ति है। इसका आशय यह है कि सुख का अनुभव किसी वस्तु की प्राप्ति, किसी इच्छा की पूर्णता या किसी प्रिय परिस्थिति के मिलने पर होता है—इन सब में अज्ञान अवश्य रहता है। यदि आत्मानन्द का साक्षात्कार हो जाए तो बाह्य पदार्थों की आवश्यकता ही न रहे; परन्तु जब तक अज्ञान बना हुआ है, तब तक जीव बाह्य वस्तुओं में सुख खोजता है। जब वह अपनी प्रिय वस्तु को प्राप्त करता है, तब अन्तःकरण में एक शान्ति और तृप्ति की लहर उठती है, जिसके कारण आत्मा का प्रतिबिम्ब अधिक स्पष्ट दिखता है। इसी क्षणिक अनुभव को लोग सुख या आनन्द समझते हैं। वास्तव में यह आत्मानन्द नहीं, बल्कि इच्छाशमन के कारण प्रतिबिम्बानन्द का उदय है।
आनन्दमय कोश की तीन अवस्थाएँ—प्रिय, मोद और प्रमोद—बताई गई हैं, जो किसी वस्तु के प्रति राग और उसकी प्राप्ति की क्रमिक अवस्थाओं का संकेत हैं। किसी प्रिय वस्तु का स्मरण होने पर जो हल्का सुख होता है, उसे ‘प्रिय’ कहते हैं; वस्तु के प्राप्ति के निकट होने पर ‘मोद’ का उदय होता है; और जब वस्तु हाथ में आ जाती है, तब गहरा ‘प्रमोद’ अनुभव होता है। इन तीनों का आधार अंतःकरण की वृत्ति है, आत्मा नहीं। आत्मा तो स्थिर, एकरस और नित्य आनन्दमय है—उसमें प्रिय, मोद या प्रमोद जैसी कोई विभाजन नहीं हो सकती। यह सब अन्तःकरण के परिवर्तन मात्र हैं।
शंकराचार्य आगे कहते हैं कि पुण्य-कर्म के परिपाक के समय यह आनन्दमय कोश अपने-आप प्रकट हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि सुख का अनुभव केवल विषय प्राप्ति पर निर्भर नहीं, बल्कि पूर्वजन्म और वर्तमान जीवन के पुण्य-संचय पर भी निर्भर है। जब पुण्य फल देता है, तब मन में उत्पन्न होने वाली वह शान्त और प्रसन्न वृत्ति जीव को सुख का अनुभव कराती है। इसी कारण कभी-कभी बिना किसी बाह्य कारण के भी व्यक्ति अत्यन्त प्रसन्न हो जाता है—यह भी ‘कोश’ का ही प्रभाव है।
अन्त में शंकराचार्य बताते हैं कि यह आनन्दमय कोश देहधारी प्राणियों को बिना किसी प्रयास के भी आनन्दित कर देता है। क्योंकि यह कोश सूक्ष्म शरीर का ही एक भाग है, इसलिए जीवभाव रहने限 तक यह अनुभव मिलता रहता है। परंतु यह भी नित्य, शुद्ध या आत्मस्वरूप नहीं है—यह भी अनात्मा है, उपाधि है, और नाशवान है। जैसे अन्य कोशों का पारगमन करके साधक अन्ततः आत्मा का साक्षात्कार करता है, वैसे ही आनन्दमय कोश का भी अतिक्रमण करना आवश्यक है। आत्मस्वभाव का आनन्द तो इस प्रतिबिम्बानन्द से अनन्त गुना गहन, नित्य और अविनाशी है। इसलिए शंकराचार्य संकेत करते हैं कि इस कोश का अनुभव भी अन्तिम सत्य नहीं, बल्कि आत्म-प्राप्ति की दिशा में एक और सीढ़ी है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!