"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 213वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
"आनन्दमय कोश"
योऽयमात्मा स्वयंज्योतिः पञ्चकोशविलक्षणः । अवस्थात्रयसाक्षी सन्निर्विकारो निरंजनः ।
सत्स्वरूपः स विज्ञेयः स्वात्मत्वेन विपश्चिता ॥ २१३ ॥
अर्थ:-इस प्रकार जो आत्मा स्वयंप्रकाश, अन्नमयादि पाँचों कोशों से पृथक् तथा जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति- तीनों अवस्थाओं का साक्षी होकर सत्-रूप निर्विकार, निर्मल और शुद्धसत्स्वरूप है, उसे ही विद्वान् पुरुष को अपना वास्तविक आत्मा समझना चाहिये।
विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आदि शंकराचार्य ने आत्मा के वास्तविक स्वरूप को अत्यंत स्पष्ट और गहन रूप से वर्णित किया है। यहाँ साधक को यह समझाया जा रहा है कि आत्मा न केवल शरीर और मन से भिन्न है, बल्कि पाँचों कोशों और तीनों अवस्थाओं—जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति—से भी सर्वथा अलग है। यह श्लोक आत्मा की स्वतंत्र, निर्मल, अविकारी और स्वयंप्रकाशित सत्ता का प्रतिपादन करता है, जिसे जानना ही आत्मज्ञान का सार है।
सबसे पहले कहा गया है—“योऽयमात्मा स्वयंज्योतिः”—अर्थात् यह आत्मा स्वयंप्रकाश है। इसका प्रकाश किसी बाहरी साधन पर निर्भर नहीं है। जैसे सूर्य स्वयं प्रकाशित है और अन्य वस्तुओं को प्रकाशित करता है, वैसे ही आत्मा अपनी सत्ता से ही सब अनुभवों, विचारों, भावनाओं और स्मृतियों को प्रकाशित करती है। जाग्रत में जो कुछ दिखता है, स्वप्न में जो कुछ अनुभव होता है, और सुषुप्ति में जो कुछ नहीं दिखता—इन सभी का गवाह आत्मा है। आत्मा का प्रकाश बाहरी प्रकाश की तरह नहीं है; यह चेतना का प्रकाश है, जो बिना किसी साधन के स्वयंसिद्ध और स्वयंस्फुरित है।
इसके बाद श्लोक कहता है कि आत्मा “पञ्चकोशविलक्षणः”—अर्थात् अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय—इन पाँचों कोशों से भिन्न है। ये कोश आत्मा को आच्छादित करते हुए उसके साथ एक-सा प्रतीत होते हैं, परन्तु वास्तव में वे आत्मा नहीं हैं। शरीर अर्थात् अन्नमय कोश नश्वर और परिवर्तनशील है। प्राणमय कोश केवल जीवन-शक्ति का समूह है। मनोमय कोश भावनाओं, इच्छाओं और विचारों से बना है। विज्ञानमय कोश बुद्धि, निर्णय और विवेक का क्षेत्र है। आनन्दमय कोश सुख की अनुभूति से जुड़ा हुआ है। इन पाँचों में परिवर्तन होता है, ये जड़ हैं और नाशवान हैं, इसलिए आत्मा नहीं हो सकते। आत्मा इन सबको प्रकाशित करता है, लेकिन स्वयं इनसे रहित है।
श्लोक आगे कहता है—“अवस्थात्रयसाक्षी”—आत्मा जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति—इन तीनों अवस्थाओं का साक्षी है। जाग्रत अवस्था में हम बाहरी वस्तुओं का अनुभव करते हैं, स्वप्न में मन द्वारा निर्मित संसार चलता है, और सुषुप्ति में कोई भी अनुभव नहीं होता। परन्तु इन तीनों में एक तत्व समान रूप से विद्यमान रहता है—वह है आत्मा। जाग्रत में ‘मैं जाग रहा हूँ’, स्वप्न में ‘मैं स्वप्न देख रहा हूँ’ और सुषुप्ति के बाद ‘मैं सोया था’—यह जानना इसी साक्षी आत्मा की उपलब्धि है। अगर आत्मा नहीं होती, तो तीनों अवस्थाओं का स्मरण ही संभव नहीं होता।
आत्मा को “निर्विकार” कहा है—अर्थात् उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। शरीर में बचपन, युवावस्था और वार्धक्य आते हैं, मन में भावनाएँ बदलती रहती हैं, बुद्धि में नए-नए निर्णय बनते और टूटते हैं—लेकिन इन सबको देखने वाला आत्मा सदैव एक-सा ही रहता है। उसे जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख, वृद्धि या क्षय—कुछ भी स्पर्श नहीं करता। इसी तरह वह “निर्जन” या “निर्मल” है—अर्थात् किसी भी दोष, पाप, पुण्य या संस्कार से रहित है। जैसे आकाश बादलों से ढका हुआ दिखता है, परन्तु बादल उसे स्पर्श नहीं कर पाते, वैसे ही आत्मा शरीर-मन के दोषों से अछूता रहता है।
अंत में श्लोक कहता है—“सत्स्वरूपः स विज्ञेयः”—वही आत्मा सत् है, अर्थात् शाश्वत, नित्य और अविनाशी। विद्वान मनुष्य को उसी को अपने वास्तविक स्वरूप के रूप में जानना चाहिए। यह ज्ञान केवल बुद्धि से नहीं, बल्कि अनुभव से प्राप्त होता है। जब साधक पाँचों कोशों का निषेध कर, तीनों अवस्थाओं को साक्षी रूप में देखना सीखता है, तब उसके भीतर प्रकट होता है कि ‘मैं न शरीर हूँ, न मन हूँ, न बुद्धि हूँ—मैं तो मात्र साक्षी, शुद्ध चैतन्य, सत्स्वरूप आत्मा हूँ।’ यही आत्मबोध मुक्ति का मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!