"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 214वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
"आत्मस्वरूपविषयक प्रश्न"
शिष्य उवाच
मिथ्यात्वेन निषिद्धेषु कोशेष्वेतेषु पञ्चसु ।
सर्वाभावं विना किञ्चिन्न पश्याम्यत्र हे गुरो।
विज्ञेयं किमु वस्त्वस्ति स्वात्मनात्र विपश्चिता ॥ २१४॥
अर्थ:-शिष्य हे गुरो ! इन पाँचों कोशों को मिथ्या रूप से निषिद्ध हो जाने पर तो मुझे सर्वाभाव (शून्य) के अतिरिक्त और कुछ भी प्रतीत नहीं होता, फिर [आपके कथनानुसार] बुद्धिमान् पुरुष किस वस्तु को अपना आत्मा माने ?
शिष्य के इस प्रश्न में आत्म-विचार की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अवस्था का वर्णन हुआ है। जब साधक गुरु के निर्देश पर पंचकोश—अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय—इन सभी का क्रमश: ‘नेति-नेति’ के द्वारा निषेध करता है, तब उसके सामने एक गम्भीर समस्या उपस्थित होती है। प्रत्येक कोश का विश्लेषण करने पर वह देखता है कि ये सभी परिवर्तनशील, जड़, दृश्य और अनुभव के विषय हैं—अर्थात् आत्मा नहीं हो सकते। जब ये पाँचों आवरण हट जाते हैं, तब साधक को प्रतीत होता है कि मानो कुछ भी शेष नहीं बचा। इसी अनुभव को वह शून्यता या सर्वाभाव समझ बैठता है। इसलिए वह कहता है—हे गुरुदेव, पाँचों कोशों को मिथ्या मानकर हटाने के बाद मुझे तो केवल अभाव जैसा कुछ दिखाई देता है। फिर ज्ञानी पुरुष किस वस्तु को ‘स्वात्मा’ कहता है?
यहाँ शंकराचार्य यह संकेत कर रहे हैं कि साधक ने कोशों का निषेध तो कर दिया, परन्तु साक्षीस्वरूप आत्मा की पहचान अभी पूर्ण नहीं हुई है। जब देह, प्राण, मन और बुद्धि का त्याग कर दिया जाता है, तब जो ‘अनुभव करता हुआ’ तत्व बचा रहता है—वही आत्मा है। परन्तु समस्या यह है कि यह आत्मा किसी वस्तु की तरह दिखाई नहीं देता, क्योंकि वह दृश्य नहीं, द्रष्टा है; विषय नहीं, विषय का साक्षी है। साधक अभी भी वस्तु-स्वरूप में किसी आत्मा को ढूँढ रहा है, जबकि आत्मा वस्तु नहीं, शुद्ध अनुभव-स्वरूप है। अतः उसे अभाव प्रतीत होना स्वाभाविक है।
सर्वाभाव की प्रतीति इसलिए होती है क्योंकि साधक ने अब तक अपने को केवल किसी ‘विशेष गुण’, ‘विशेष रूप’ या ‘विशेष अनुभव’ से जोड़कर ही देखा था। जब ये सब नष्ट हो जाते हैं, तब उसे लगता है कि ‘मैं नहीं हूँ।’ पर वास्तव में यह ‘अभाव’ का अनुभव भी उसी चैतन्य के द्वारा ही जाना जा रहा है। अभाव का भी ज्ञान तभी सम्भव है, जब कोई ‘ज्ञाता’ उपस्थित हो। यदि वास्तविक अभाव होता, तो अभाव का ज्ञान भी नहीं हो सकता था। इस प्रकार ‘शून्यता का ज्ञान’ भी आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण है। अतः शिष्य की समस्या केवल अनुभूति की प्रतीति है; वास्तविकता में आत्मा का अभाव कभी नहीं हो सकता।
वेदान्त कहता है कि आत्मा को ‘किसी वस्तु’ की तरह देखने का प्रयास ही गलत दिशा है, क्योंकि आत्मा वह है जो सबको प्रकाशित करता है—वह स्वयंप्रकाश है। जब पंचकोशों का निषेध किया जाता है, तब पहली बार मन-बुद्धि की चेष्टाएँ शांत होती हैं और जो शुद्ध साक्षी बचता है, उसकी पहचान प्रारम्भ होती है। शिष्य को यह साक्षी असत् के रूप में प्रतीत होता है, क्योंकि वह किसी वर्णन, आकार या गुण में नहीं आता। पर गुरु उसे समझाते हैं कि यह अभाव नहीं, बल्कि ‘अगम्य, अव्यवहार्य, अचिन्त्य आत्मा’ की ओर पहला संकेत है। यह वही अवस्था है जिसे उपनिषद् ‘नेति-नेति के बाद की नित्यता’ कहते हैं।
इस प्रकार इस श्लोक का सार यह है कि पंचकोश-निषेध के बाद जो साधक को शून्यता प्रतीत होती है, वह वस्तुतः आत्मा के अचिन्त्य स्वरूप को न समझ पाने की अवस्था है। ज्ञानी पुरुष किसी दृश्य वस्तु को आत्मा नहीं मानता, बल्कि वही चैतन्य—जो कोशों के निषेध और अभाव की अनुभूति दोनों को जान रहा है—उसे ही अपने स्वरूप के रूप में पहचानता है। अतः आत्मा न तो कोश है, न अभाव है; वह अभाव को भी प्रकाशित करने वाला शुद्ध साक्षी है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!