"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 215वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
"आत्मस्वरूप-निरूपण"
"श्रीगुरुरुवाच"
सत्यमुक्तं त्वया विद्वन्निपुणोऽसि विचारणे।
अहमादिविकारास्ते तदभावोऽयमप्यनु ॥ २१५॥
अर्थ:-गुरु- हे विद्वन् ! तू बहुत ठीक कहता है, विचार करने में तू बहुत कुशल है। अरे, जैसे अहंकार आदि तेरे विकार हैं वैसे ही उनका अभाव भी है।
शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि का यह श्लोक साधक को अत्यंत गहराई से यह समझाता है कि आत्मा से असंग रहते हुए अहंकार तथा उसके सभी विकार कैसे प्रकट होते हैं और फिर ज्ञान के उदय पर कैसे उनका अभाव भी उतनी ही सहजता से प्रकट हो जाता है। यहाँ गुरु शिष्य को संबोधित करते हुए कहता है— “सत्यमुक्तं त्वया विद्वन्… अहमादिविकारास्ते तदभावोऽयमप्यनु”— अर्थात्, “हे विद्वान् शिष्य! तूने बिल्कुल सत्य कहा है। तू विचार में कुशल है। जैसे अहंकार आदि तेरे विकार हैं, वैसे ही उनका अभाव भी है।” यह वाक्य केवल प्रशंसा नहीं, बल्कि गहन आध्यात्मिक संकेत है। गुरु यह बता रहा है कि अहंकार, राग, द्वेष, मोह, देहाभिमान आदि सभी मानसिक विकार साधक में उत्पन्न होते हैं, किंतु ये आत्मा की वास्तविक प्रकृति नहीं हैं। जिस प्रकार बादल आकाश पर क्षणिक रूप से छा जाते हैं परंतु आकाश कभी उनसे प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार आत्मा अहंकार और इसके संश्लेषित विकारों से कभी दूषित नहीं होती।
जब शिष्य कहता है कि पाँचों कोशों का निषेध करने पर तो मानो कुछ भी नहीं रह जाता—“सर्वाभाव”—तो गुरु उसे सावधान कर रहा है कि यह ‘अभाव’ भी मन का ही एक अनुभव है, और उसी तरह मिथ्या है जैसे पहले ‘अहंभाव’ मिथ्या था। अर्थात् ‘अहं’ और ‘अहं का अभाव’, दोनों ही उपाधि-जन्य स्थिति हैं। दोनों परिवर्तनशील हैं, इसलिए आत्मा नहीं हो सकते। आत्मा तो वह है जो इन दोनों अवस्थाओं को जानता है—अहं भाव को भी और उसके क्षय को भी। जो जानता है, वही अचल और सत्य है। इसलिए गुरु कहता है कि जैसे तेरे अंदर अहंकार के विकार उत्पन्न होते हैं, वैसे ही उनका लय भी होता है—और यह दोनों ही मन के क्षेत्र की घटनाएँ हैं, आत्मा से इनका कोई संबंध नहीं।
साधक का मुख्य भ्रम यही होता है कि जब वह ‘अहं’ को त्यागता है और भीतर बहुत शून्यता-सी प्रतीति होती है, तो वह उसे ही आत्मा समझ बैठता है। परंतु गुरु उसे समझाता है कि शून्यता भी एक अवस्था है—और जो अवस्था है, वह भी नश्वर है। आत्मा वह नहीं जो आता और जाता है, बल्कि वह साक्षी है जो इन सभी अवस्थाओं को प्रकाशित करता है। जैसे स्वप्न और जाग्रत अवस्थाएँ आती-जाती हैं परंतु उन्हें जानने वाला चैतन्य सदैव रहता है, उसी प्रकार अहंकार और उसका अभाव भी मन की ही तरंगें हैं; वे उठती हैं और विलीन हो जाती हैं। परंतु आत्मा सदैव समानरूप, निर्विकार, निरंजन और स्वयंसिद्ध है।
गुरु यह स्पष्ट करना चाहता है कि साधक को न तो ‘अहं’ में सत्यता देखनी चाहिए, न उसके अभाव में; क्योंकि दोनों ही द्वैत के भीतर घटित होने वाली अनुभूतियाँ हैं। वास्तविक साधना यह जानने में है कि “मैं” न अहं हूँ और न अहं का अभाव—मैं वह हूँ जो इन दोनों को देख रहा है। यही साक्षी भाव आत्मज्ञान का द्वार खोलता है। इस प्रकार शिष्य को धीरे-धीरे यह विवेक प्रदान किया जाता है कि आत्मा सभी अनुभवों, विचारों, भावनाओं और अवस्थाओं से परे है। न वह किसी विकार को ग्रहण करता है, न किसी अविकार को। वह मात्र स्वच्छ, शुद्ध, प्रकाशस्वरूप चैतन्य है।
इस श्लोक का सार यह है कि आत्मविचार की प्रक्रिया में जो भी अनुभव—अहंभाव या अभाव—उदित होता है, उसे मन की ही तरंग समझकर छोड़ देना चाहिए और साक्षी-भाव में स्थित होना चाहिए। यही अद्वैत ज्ञान की ओर अग्रसर होने का मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!